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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
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-श्रीमती अ० सौ० आनन्दीबाई (गजेन्द्रगढ़ कर्नाटक) 388GOOGGESEPSEEDSGSSSSSSSSSCIENDS99999999DONDOROSCSSSCGOVEIDOSSSSSSSSSSSESE
अन्तर्बाह्य संयोगों की मुक्ति ही आत्मा की चरम और परम उन्नति है। इस विराट विश्व में जितने भी प्राणी हैं, उन प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझते हैं सन्त और सती जन । इसी निर्मल बुद्धि के कारण सन्त और सती जन-जन के कल्याण में जुड़े रहते हैं । वे कुशल माली हैं जो मानवता का बीज सभी मानवों में वपन करते हैं। जन-जन के कल्याण हेतु स्वयं भीषण से भीषण कष्ट सहन करके भी सदा फूलों की तरह मुस्कराते रहते हैं। आज विज्ञान की कशमसाती बेला में जो यत्र-तत्र मानवता के संदर्शन होते हैं उसका सम्पूर्ण श्रेय सन्त और सती वृन्द को है। यदि वे प्रबल प्रयास नहीं करते तो आज मानव दानव से भी गया गुजरा होता वस्तुतः सन्त और सती मानव के गुणों के जन्मदाता हैं।
महासती पुष्पवतीजी महान् हैं उनमें सती जनोचित सभी गुण विद्यमान हैं। उन्होंने राजस्थान, मध्य भारत, गुजरात और महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में पैदल परिभ्रमण कर मानव समाज के विकास में जो योगदान दिया है, वह अपूर्व है । वे अपने मधुर स्वभाव के कारण प्रत्येक व्यक्ति को अपने ओर
आकर्षित कर लेती हैं। उनके दर्शन करने से अन्तर्मन को अवर्णनीय आनन्द की उपलब्धि होती है और - वार्तालाप करने से ज्ञान की अभिवद्धि होती है। ऐसी शील और मधुर स्वभाव की धनी हैं महासती पुष्पवतीजी।
सन् १९७६ में सर्व प्रथम उदयपुर में आपके दर्शन का अवसर मिला। मेरी ननद आशा जी की दीक्षा का पावन प्रसंग था। मैं सपरिवार उस दीक्षा में उपस्थित हुई प्रथम दर्शन में ही मुझे अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति हुई। माताजी प्रभावतीजी महाराज और पुष्पवतीजी के दर्शन कर मेरे मन का कण और अणु-अणु आह्लादित हो उठा। मैं मन ही मन सोचने लगी-मेरे जीवन में भी वह दिन कब आयेगा जिस दिन मैं स्वयं संयम प्रहण कर अपने जीवन को साधना के रंग में रंगूगी। वह दिन धन्य होगा। पर लम्बा विहार करने की स्थिति न होने से मैं दीक्षाग्रहण नहीं कर सकती थी पर 'मुझे प्रसन्नता है मेरी सुपुत्री सुन्दर ने जो अपनी बुआ के दीक्षा प्रसंग को देखकर उसके अन्तर्मानस में भी वैराग्य का पयोधि उछाल मारने लगा और उसने महासती पुष्पवतीजी के पास दीक्षा ग्रहण की और उनका दीक्षा के पश्चात् नाम रत्नज्योति रखा गया।
उसके पश्चात् में अनेक बार महासतीजी की सेवा में जोधपुर, किशनगढ़ और संगमनेर (महा.) पूना तक सेवा में रही हूँ। मैंने बहुत ही निकटता से पुष्पवतीजी को देखा है । इसलिए मैं साधिकार लिख सकती हूँ कि उनका जीवन पुष्प की तरह विकसित है। उसमें सौरभ ही सौरभ है । स्वयं कष्ट सहन करके भी सदा-दूसरों को सौरभ प्रदान करती रहती हैं।
दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के पावन पुण्य क्षणों में; मैं अपनी ओर से श्रद्धा-सुमन समर्पित करती हूँ। और यह मंगल कामना करती हूँ कि वे पूर्ण स्वस्थ रहे और खूब जिन धर्म की प्रभावना करें।
मम्म्म्म्म्म
११२ | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन
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