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साध्वारनपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
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जो सम्प्रदायवाद का चश्मा लगा था, वह हट गया है। आपके अनेक वर्षावास भी हुए हैं। आपके और मुझे यर्थाथता के दर्शन हुए। पहले मैं दूसरों सद्गुणों पर नाथद्वारा संघ को नाज है। श्रीमान् के दोष निहारा करता था । पर आपकी मंगलमय चौथमलजी सुराना जो संघ के अध्यक्ष रहे हैं उनकी प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर मैं अब अपने दोष देखने आपके प्रति असीम भक्ति है। लगा हूँ। मुझे जीवन का नवीन प्रकाश मिला। इस पावन बेला में मेरे अन्तर्हृदय से जो मेरा यह मानना था कि- "शठे शाठयं समाचरेत् भावनाएँ उमड रही हैं उसे आप स्वीकार करें। ईट का उत्तर पत्थर से दो। किन्तु आपके सम्पक सदामा के तन्दल की तरह मेरी भावनाओं का में आकर मैंने यह निश्चय किया है कि ईंट का ।
कि इट का आप अंकन करें। आप दीर्घजीवी बनें। मेरा जवाब पत्थर से नहीं फूलों से दो। दुष्ट व्यक्ति को और जैन समाज का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व शिष्ट बना दो।
__ का आप पथ प्रदर्शन करें । यही मेरी शत-शत शुभनाथद्वारा संघ पर आपकी असीम कृपा रही कामना है, भाव-अर्चना है ।
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---सुभाष ओसवाल
(अध्यक्षः अ. भा. श्वे. स्था. जैन युवा कान्फ्रेस, नईदिल्ली) महासती पुष्पवतीजी एक महान् तत्त्वदर्शी श्री बनारसीदास जी ओसवाल दिल्ली के जानेमहासती हैं। जप-तप और ज्ञान-साधना के साथ माते हए परम सेवाभावी थे। उस समय उपाध्याय ही साथ लोक-कल्याण कामना का प्रसार ही आप श्री जी के प्रोस्टेट का आप्रेशन हआ था। पिताश्री श्री क उदात्त एव आदश जावन का मुख्य लक्ष्य की सेवा के कारण उपाध्यायश्री जी की हमारे परिहै। सद्भाव-सदाचार-स्नेह सहयोग शुद्धात्मवाद वार पर असीम कृपा रही । सन १९८४-८५ का वर्षा
और सहिष्णुता का महत्त्व जनता जनादन को वास उपाध्याय श्री का दिल्ली में हआ उस समय समझाने के लिए आप पैदल परिभ्रमण करती हैं सामाजिक कार्यों के लिए पझे राजस्थान की यात्रा और अपने पीयूषवर्षी प्रवचनों में अन्धविश्वास, करनी पडी। उस यात्रा में मदनगंज-किशनगढ़ अन्धपरम्परा रूढ़िवाद, जातिवाद, स्वाथान्धता, पहुँचा. जहाँ पर महासती पुष्पवतीजी विराज ऊँच-नीच विषयक विषमता आदि दुगुंणो को रही थी. उनके पावन दर्शन को पाकर और उनसे करीतियों को नष्ट करने को प्ररणा प्रदान करती विचार चर्चा कर मझे सहज अनभति हई कि महाहै । धामिक समन्वय नातकोत्थान के लिए आप सती पष्पवतीजी एक पहुँची हई तत्त्वज्ञा साध्वा ।। अनिश प्रयत्न करती रहती हैं।
आप हमारे श्रमणसंघ के उपाचार्य श्री देवेन्द्र सन् १९८७ मई महीने में पूना सन्त सम्मेलन मुनिजी की ज्येष्ठ बहिन हैं । देवेन्द्रमुनिजी के साथ का आयोजन हुआ। मुझे उस सम्मेलन में युवा मेरा बहुत ही पुराना परिचय रहा है, सन् १९५४ कांफस का अध्यक्ष होने के नाते पूरे सम्मेलन के में महास्थविरजी ताराचन्दजी म० उपाध्याय समय पूना ही रहना पड़ा। साधु-सन्तों से बहुत श्री पुष्कर मुनिजी म० पधारे थे। मेरे पूज्य पिता ही निकट का परिचय रहा । सन्त सम्मेलन में श्री
एक महान तत्वदर्शी महासती | १०७
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