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साध्वारत्न पुष्पवती आभनन्दन ग्रन्थ ।
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एक सुलझी हुई साधिका
-सम्पत्तीलाल बोहरा अध्यक्ष-श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय (उदयपुर राज.)]
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आज चारों ओर हिसा, अशान्ति के काले- दृष्टियों से सत्य को ग्रहण करता है। वह एकान्त कजरारे बादल मंडरा रहे हैं । संघर्ष पनप रहा है। वादी नहीं होता अपितु सभी दृष्टिकोणों से सत्य मानव का हृदय सिमटता चला जा रहा है । उसका को समझने का प्रयास करता है। पर खेद है कि चिन्तन संचित हो गया है। जिससे जातिवाद, हम अनेकान्तवादी भी एकान्तवादी होते जा रहे प्रान्तवाद और भाषावाद के काले नाग फन फैला
हैं । वैज्ञानिक जगत में सन् १९०५ में प्रोफेसर कर मानवता को निगलने के लिए ललक रहे हैं। अल्बर्ट आईन्स्टीन ने सापेक्षवाद के सिद्धान्त को इस विकट बेला मे शान्ति का, स्नेह र सद्भावना प्रस्तत किया और इस सिद्धान्त के द्वारा उन्होंने का पावन पथ प्रदर्शन करने वाले जो मानव को
अनेक समस्याओं का निरसन किया। स्याद्वाद विराट बनने की प्रेरणा देते हैं । वे भावात्म एकता
और सापेक्षवाद इन दोनों में अपेक्षा प्रधान हैं। का सन्देश देते हैं । प्रसुप्त मानवता को जागृत करते
दोनों ही सत्य ज्ञान की कुंजी हैं । पर हम उस कुंजी हैं। उसी लड़ी की कड़ी में परम विदुषी साध्वीरत्न
का उपयोग नहीं कर रहे हैं । यदि हम उस कुंजी महासती पुष्पवतीजी का नाम आदर के साथ लिया
का उपयोग करें, तो जैन शासन में जो विभिन्न जा सकता है। ___ मैंने महासतीजी के दर्शन कव किये यह तिथि गच्छ पनप रहे हैं वे नहीं पनपेंगे । सम्प्रदाय रहेंगी, तो स्मरण नहीं है ? पर जब भी दर्शन किये मन को पर सम्प्रदायवाद नहीं रहेगा। सम्प्रदाय भले ही एक अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति हई । उनका रहें किन्तु सम्प्रदायवाद नहीं रहे। पवित्र सान्निध्य चिन्तन को उबुद्ध करता है।
___ मैंने एक बार महासतीजी से पूछा कि जैन में श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय का अध्यक्ष होने के साधना का मूल आधार क्या है
नाते मुझे अनेक बार आपसे सामाजिक, धार्मिक उन्होंने मुझे बताया कि साधना का प्रारम्भ और साहित्यिक विषयों पर विचार चर्चा करने का होता है समता से । चाहे गृहस्थ हों, चाहे श्रमण अवसर मिला है। मैंने इन सभी चर्चाओं में यह हों । दोनों के लिए समता आवश्यक है । जैन धर्म में पाया कि महासतीजी एक सुलझी हुई विचारिका साधक के लिए छः कार्य आवश्यक बताए हैं । उसमें हैं । उनका चिन्तन बहुत ही स्पष्ट है। उनके अन्त- सर्वप्रथम आवश्यक है सामायिक यानि समता । निस में एक तड़फन हैं, लगन हैं कि हमारी बिना समता के अन्य कोई साधना सफल नहीं हो आध्यात्मिक उत्क्रान्ति होनी चाहिये।
सकती। गीताकार ने भी समत्व को ही योग कहा उन्होंने वार्तालाप के प्रसंग में मुझे बताया कि
है। जहाँ समता होती है, वहाँ ममता और विषमता जैन दर्शन विश्व का महान् दर्शन हैं। उसके पास ।
पनप नहीं सकती। समत्वयोगी साधक ही अपने अनेकान्तवाद का ऐसा महान् सिद्धान्त है जो जैन । धर्म की तो क्या विश्व की गम्भीर से गम्भीर
आप को निहार सकता है। समस्याओं को भी सुलझा सकता है । वह विभिन्न समय-समय पर आप से विचार-चर्चाएँ हुई।
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एक सुलझो हुई साधिका १०१
In.... TIMERI.
www.jainel
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