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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
हमारे कुल का नाम रोशन किया
वाल्यकाल जीवन का एक सुनहरा समय है । उस सुनहरे काल की जब मधुर स्मृतियाँ मानस पटल पर चमकती है तो हृदय आनन्द विभोर हो उठता है । मेरे पूज्य पिता श्री कन्हैयालाल जी वरड़िया एक धर्मनिष्ठ सुश्रावक थे। उनके जीवन के कण-कण में और मन के अणु- अणु में धर्म की निर्मल भावनाएँ अंगड़ाइयाँ ले रही थी । मेरी पूजनीया मातेश्वरी चन्द्रबाईजी भी एक सुशील और श्रद्धालु सुश्राविका थी । हमारे पूरे परिवार पर माता-पिता के धार्मिक संस्कारों का असर था । मेरे सबसे बड़े भाई श्री जीवनसिंहजी थे । वे बहुत ही प्रतिभा सम्पन्न पुण्य-पुरुष थे । उन्होंने छोटी उम्र में ही व्यापार कला में दक्षता प्राप्त की थी । और पुण्य की प्रबलता से पूज्य पिता भी उनके भरोसे निश्चिन्त थे । सत्ताईस वर्ष की भरी जवानी में कुछ समय बीमार रहकर संथारे के साथ उनका देहान्त हो गया। उनका देहान्त पूज्य पिताश्री के लिए वज्राघात से भी अधिक कठोर था । पर विधि के विधान के आगे सभी लाचार थे । उनके निधन से परिवार को भारी आघात लगा ।
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मेरी भोजाई श्रीमती तीजबाईजी बहुत ही साहसी महिला थी । उनके साहस को देखकर हम सभी विस्मित थे । पूज्य पिताश्री ने वियोग की दुःखद घड़ियों में भोजाईजी को सतत धार्मिक प्रेरणा दी। जिससे उनके जीवन में सुख शान्ति बनी रहे ।
उस समय भाग्य से उदयपुर में त्याग सुर्ति सद्गुरुणी जी महासती श्री मदन कुंवरजी और परम विदुषी साध्वी रत्न महासतीजी श्री सोहन कुंवरजी म. विराजती थी । पिताश्री ने महासती जी के पास
२ | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन
- मदनलालजी बरड़िया (पाली)
प्रतिदिन जाने की प्रेरणा प्रदान की । फलस्वरूप भोजाईजी में धार्मिक भावना दिन-दनी और रात चौगुनी बढ़ती रही । भोजाईजी के साथ ही मेरी भतीजी सुन्दर कुमारी और मेरा भतीजा धन्नालाल भी महासतीजी के सम्पर्क में आने लगे और उनके जीवन में भी धार्मिक विचार पनपने लगे ।
मेरे पूज्य पिताश्री मोह के कारण अपनी प्यारी पोती और प्यारे पोते को साधना के महामार्ग पर अग्रसर होता देखना नहीं चाहते थे । उनका उन पर इतना अधिक प्यार था कि वे उनको उस मार्ग की ओर बढ़ने के लिए रोकने लगे । यद्यपि पिताश्री अपूर्व धर्मनिष्ठ थे । किन्तु मोह के कारण ही वे इस प्रकार करने से बाध्य हुये थे । इस कार्य को पसन्द नहीं कर रहे थे ।
पिताश्री का स्वास्थ्य ज्येष्ठ भ्राता की मृत्यु के भयंकर आघात से अस्वस्थ हो गया था । परिवार की सारी जिम्मेदारियाँ उन पर आ चुकी थीं । अतः स्वास्थ्य धीरे-धीरे शिथिल होता जा रहा था । और विक्रम सं० १९६३ में उनका स्वर्गवास हो गया । उनके स्वर्गवास के पश्चात् अब घर में माताजी के पश्चात् भोजाईजी ही वड़ी थी । भोजाईजी ने 'सुन्दर कुमारी' को दीक्षा की अनुमति प्रदान कर दी ।
सुन्दर कुमारी मेरे से चार वर्ष बड़ी थी । बाल्यकाल में 'हम दोनों परस्पर खूब खेलते थे और एक-दूसरे को खूब प्यार करते थे । जब वे संयमसाधना के मार्ग को स्वीकार करना चाहती थी । पर हमारा मन नहीं चाहता था। एक वर्ष तक पिता श्री के स्वर्गवास के पश्चात् उन्हें रोकने का प्रयत्न किया गया, पर उनकी वैराग्य भावना बहुत ही
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