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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
परिवार को जिन शासन की सेवा में समर्पित कर दिया। उसके पश्चात् मेरी लघु बहन श्रीमतीजी ने और हनोई ने भी इस दिशा में कदम बढ़ाए ।
एक दिन जो परिवार दीक्षा का विरोधी था, वही परिवार उनके सद्गुणों के कारण आज नत है । व्यक्ति में जब गुण होते हैं तो उसकी पूजा सर्वत्र होने लगती है ।
आज हमें और हमारे परिवार को गौरव है कि ऐसी विभूतियाँ हमारे परिवार में से निकली हैं जिन्होंने धार्मिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं साहित्यिक क्षेत्र में भी एक कीर्तिमान स्थापित किया है । श्री तारक गुरु ग्रन्थालय से वे मौलिक प्रकाशन हुए हैं ।
मैं अपनी ओर से, अपने परिवार की ओर से और श्री तारक गुरु ग्रन्थालय का मंत्री होने के नाते से उसकी ओर से दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के सुनहरे अवसर पर श्रद्धा-सुमन समर्पित करते हुए बहुत ही आनन्द की अनुभूति कर रहा हूँ ।
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शत-शत
तुम्हें प्रणाम
सुश्री संगीता
(पुत्री; श्री पारसमलजी कांकरिया )
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कैसे पूजूं चरण तुम्हारे, कैसे करूं नमन, जितना तुमको खोजूं, उतना खोता जाता है मन ।
एक नन्हा सा वट वृक्ष का बीज जब प्रकृति के गोद में समा जाता है । अनुकूल हवा, पानी और प्रकाश मिलने से वह नन्हा सा बीज एक विराट वृक्ष का रूप धारण कर लेता है । और जन-जन का वह आकर्षण केन्द्र बन जाता है। हजारों थके मांदे यात्री उसकी शीतल छाया में बैठकर विश्रान्ति का अनुभव करते हैं । और हजारों पक्षीगण भी उसमें बसेरा लेकर अपने जीवन को धन्य अनुभव करते हैं । जो दाना एक दिन नगण्य समझा जाता था, वह कितनों का आश्रयदाता बन जाता है ।
जिन व्यक्तियों को जन्म लेते समय हम नगण्य समझते हैं, पर वे आत्माएं संस्कारों को पाकर कितनी महान बन जाती हैं ? उनका जीवन आलोक स्तम्भ के समान पथ प्रदर्शक होता है। उनके चरणशरण में पहुँचकर अनेक आत्माएँ अपना उद्धार-समुद्धार करती हैं । परम विदुषी साध्वीरत्न पुष्पवतीजो हमारे परिवार में जन्मी । वे मेरे बड़े नानाजी जीवनसिंहजी की सुपुत्री हैं। माता-पिता और परिवार के धार्मिक संस्कारों के कारण प्रताप पूर्ण प्रतिभा के धनी स्वर्गीया परम विदुषी महासती श्री सोहन कुंवरजी महाराज के सानिध्य को पाकर मेरी बड़ी नानीजी महासती प्रभावतीजी और मौसी महासती पुष्पवतीजी और मामा देवेन्द्र मुनिजी सभी ने साधना पथ को स्वीकार किया और वे निरन्तर साधना के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं ।
नानीजी महाराज बहुत ही प्रतिभा के धनी, त्याग और वैराग्य की मूर्ति थी । उनकी वाणी मिश्री से भी अधिक मधुर थी, वे ज्ञानमूर्ति थी । मेरी पूजनीया माताजी उषा देवी ( जवेरी) बताती है सन् १६६६ में उन्होंने पाली में चातुर्मास किया । उस समय उनकी गुरुणीजी महाराज रुग्ण थी और समाधिपूर्वक उनका पाली में ही स्वर्गवास हुआ । नानीजी महाराज के पास सदा बहिनों की भीड़ लगी
६० | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन
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