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साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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पकचकककककककककककककायककककककककवादन कर
पुष्कर मुनिजी म०; उपाचार्य देवेन्द्र मुनिजा के
वर्षावास भी हुए उसमें मैं उनके बहुत ही निकट जोवन का कायाकल्प
सम्पर्क में आया । वस्तुतः महान् गुरुओं का सानिध्य
पाकर कौन महान् नहीं बनता ? पुरपवतीजी -हस्तीमल लोढ़ा (उदयपुर) को भी महान् बनाने में इन्हीं गुरुओं का योगदान stestest te doda deste testeste desto se deshsa slashdosh dosiestdesosastostadosledasested नीतिशास्त्र विशारद चाणक्य ने लिखा है
मैं इस सुनहरे अवसर पर अपनी ओर से अपना
धर्मपत्नी रोशन देवी की ओर से श्रद्धा-सुमन प्रत्येक पर्वत पर माणिक्य नहीं होता प्रत्येक हाथी
समर्पित कर रहा हूँ। मे मुक्ता नहीं मिलती, सभी जंगलों में चन्दन उपलब्ध नहीं होता वैसे ही सर्वत्र साधु नहीं मिलते हैं। शैले-शैले न
5.2 , 5219 माणिक्य, मौक्तिकं न गजे-गजे। "
??? ????? ? ??? ??? ၀၉၁၀၈၈၇ ၉ साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने-वने ।।
हृदयोद्गार माणिक्य और मोती व चन्दन दुर्लभ हैं वे अपनी चमक और दमक तथा सुगन्ध से जन-मानस -श्रीमती राजबाई कन्हैयालालजी लोढ़ा (उदयपुर) को आकर्षित करते हैं वैसे ही सन्त भी सद्गुणों के कामकालानमककककककककककककनलालबननननकालकर कारण जन-मन को मंत्र मुग्ध बनाते हैं। सामान्य जन से उनका जीवन विशिष्ट होता है। महासती जैन धर्म त्यागप्रधान धर्म है, भोग से योग पुष्पवती जी श्रमण परम्परा के एक जगमगाते रत्न की ओर, राग से विराग की ओर बढ़ने की यह हैं। उनकी प्रतिभा विद्वत्ता निर्भयता और चारित्र पवित्र प्रेरणा देता है यही कारण है कि जैन धर्म निष्ठा के कारण जन-जन के अन्तःकरण में उन्होंने में सन्त और सतियों का जीवन त्याग और तप अपना स्थान बनाया है। सिंह जहाँ भी जाता है का एक जीता जागता उदाहरण है। उनके तपःपूत वहाँ अपना स्थान बना लेता है, वैसे ही आप
जीवन को देखकर किस श्रद्धालु का जीवन नत उत्कृष्ट आचार और विमल विचारों के कारण नहीं होता, तपोमूर्ति महासती श्री मदनकुँवर जहाँ भी पधारती हैं वहाँ जन-मानस में अपना
__ जी म. और तप, साधना की जागती प्रतिमा स्थान बना लेती हैं।
महासती श्री सोहन कुंवरजी म० का जीवन एक सन् १९५४ में; मैं जयपुर में था, उस समय बोलता हुआ भाष्य था, उनके सानिध्य में आकर सर्वप्रथम महासती पूष्पवतीजी के दर्शनों का अनेक भव्यात्माओं ने अपने जीवन को चमकाया सौभाग्य मिला, हमारा सांसारिक रिश्ता भी व दमकाया। बहत ही निकट का था तथापि मैं कभी भी सन्त मेरी लघु बहिन श्री तीजबाई ने महासतीजी सतियों के सम्पर्क में नहीं जाता था, मुझे ऐसी के सान्निध्य को पाकर संयममार्ग को स्वीकार एलर्जी थी पर महासती जी के सानिध्य में पहुंचकर करने का दृढ़संकल्प किया। उस संकल्प की मेरे भ्रम दूर हो गए और मुझे एक विशिष्ट आत्म पूर्ति में अनेक बाधाएँ उपस्थित हुईं। इस स्थान सन्तोष प्राप्त हुआ। मेरे जीवन का काया कल्प पर यदि अन्य महिला होती तो वह कभी की हो गया।
विचलित हो जाती किन्तु मेरी बहिन ने ऐसा शौर्य जयपुर में सन् १९५५-५६ में उपाध्याय श्री दिखाया जो एक राजस्थानी ललना के लिए
हृदयोद्गार | ८७
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