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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
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की चाह आपमें लेश मात्र भी नहीं है । इस विषय पर किसी के बात करते ही आप मानों अपने आप में सिमट मौन धारण कर लेती हैं तथा वक्ता को अविलम्ब महसूस हो जाता है कि यह विषय आप को अत्यन्त अरुचिकर लग रहा है। चतुर्विध संघ
प्राचीन इतिहास को उलटने पर ज्ञात होता है कि तथागत बुद्ध ने तो अपने धर्म-संघ में नारी को स्थान दिया ही नहीं था। बहुत समय के पश्चात् अपने एक शिष्य के आग्रह पर एक स्त्री को साध्वी बनने की अनुमति दी थी, किन्तु वह भी बड़े अनमने भाव से। वे स्त्रियों को धर्म-कार्य के योग्य मानते ही नहीं थे।
किन्तु हमारी जैन-परम्परा में तो सदा से ही नारी का महत्त्व बड़ा उच्च माना गया है। चतुर्विध संघ में जहाँ दो स्थान श्रमण और श्रावक के हैं, वहीं दो स्थान साध्वी एवं श्राविका अर्थात् नारी के भी हैं। साथ ही यह अकाट्य एवं ध्रुव सत्य है कि नारी ने अपने स्थान को कम उज्ज्वल नहीं किया है वरन अति भव्य तपोमय एवं साधनामय बनाकर सदा ही आदर्श उपस्थित किया है। इतिहास यह भी बताता है कि प्राचीनकाल से ही मात्र साधारण नारी ही नहीं, अपितु जिनके यहाँ ऐश्वर्य का अटूट भंडार रहा, ऐसी श्रेष्ठि-पत्नियाँ, रानियाँ और महारानियाँ भी सर्प-केंचुल वत् अपने समग्र वैभव एवं परिजनों का त्याग करके त्याग, तपस्या तथा साधना के क्षेत्र में उतरी हैं और दृढ़ संयम तथा अटूट आस्था के साथ आत्म-मुक्ति के मार्ग पर चली हैं और धर्म-क्षेत्र में अपना क्रांतिकारी स्थान बनाकर शाश्वत सुख की अधिकारिणी बन चुकी हैं।
इसी परम्परा में आज तक असंख्य तपस्विनी एवं विदुषी साध्वियाँ अपने नाम को उज्ज्वल करती चली आ रही हैं, जिनमें एक नाम श्रमणी शिरोमणि, आध्यात्म योगिनी, परम विदुषी एवं आगमज्ञ साध्वीरत्न महासतीजी श्री पुष्पवतीजी म० का भी उल्लेखनीय है। अपनी प्रज्ञा, चिन्तनशीलता, तेजस्विता एवं गूढ़ ज्ञान के द्वारा आप बहुत काल से जैन-समाज का मार्ग-दर्शन कर रही हैं। आपकी मर्मस्पर्शी शैली एवं साधनापूरित चारित्र्यमय जीवन ने जन-जन के मानस को परिष्कृत एवं सुसंस्कृत बनाने का अथक प्रयास किया है तथा अनेकानेक जिज्ञासु और मुमुक्षु प्राणियों को बोध देकर साबित कर दिया है कि
न बिना यानपात्रेण तरितं शक्यतेऽर्णवः ।।
नर्ते गुरूपदेशाच्च सुतरोऽयं भवार्णवः ॥ --जैसे जहाज के बिना समुद्र को पार नहीं किया जा सकता, वैसे ही गुरु के मार्ग-दर्शन के बिना संसार-सागर का पार पाना अत्यन्त कठिन है।
मेरा विश्वास है कि महासतीजी भी जल-पोत को दिशा बताने वाले और समुद्र के मध्य में स्थित रहने वाले प्रकाश-स्तम्भ के सदृश ही इस संसार-सागर में भटकने वाले मार्गभ्रष्ट अथवा दिग्मूढ़ प्राणियों के लिए उच्चतम ज्ञान-द्वीप अथवा आलोक-स्तंभ बनकर उन्हें आत्म-मुक्ति की सही दिशा का ज्ञान और दिग्दर्शन कराएँगी।
अन्त में मैं आपकी दीक्षा-स्वर्ण-जयन्ती के उपलक्ष्य में आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए यही कामना करती हूँ कि आप चिरकाल तक तप, त्याग एवं साधना की प्रतीक बनकर जन-मानस की आध्यात्मिक मोड़ दें तथा साध्वी-वर्ग की महत्ता साबित करते हुए चतुर्विध संघ में दिये गये नारी के स्थान को पूर्णतया अनिवार्य एवं उज्ज्वलतम साबित करें। आपकी सूकीर्ति दिग दिगन्त में अपनी दिव्य प्रभा फैलाए, इसी मंगल कामना के साथ मेरे अपने असंख्य श्रद्धा-सुमन आपको समर्पित हैं।
८४ | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन
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