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साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
पुत्री पुष्पवती एवं पुत्र देवेन्द्रकुमार में शैशवावस्था से ही उत्तम गुण तथा आध्यात्मिक संस्कार भरने प्रारम्भ कर दिये । उन्होंने अपना लक्ष्य ही यह बना लिया था कि मुझे अपनी बेटी और बेटे को संसार के नश्वर सुखों में उलझाकर इनके जन्म-मरण को बढ़ाना नहीं है अपितु मुक्ति मार्ग पर चलाकर संसार को कम करना है | अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे प्राणप्रण से जुट गई । बहन और भाई साधना के राज मार्ग पर चल दिये
माता प्रभावती की अहर्निश - सजगता रंग लाई और पुत्री पुष्पवती ने मात्र चौदह वर्ष की अवस्था में परमविदुषी, तपोमूर्ति एवं सरलमना महासतीजी श्री सोहनकुंवरजी म. के पास भगवती दीक्षा ग्रहण कर ली । अपनी माता के इस उपकार को महासती ने सदा गद्गद होकर स्मरण किया है तथा अनेक बार वार्तालाप के दौरान उन्होंने कहा है- " मैं माताजी के उपकार से कभी उऋण नहीं हो सकती । इस संयममार्ग पर बढ़ाने वाली मेरी माँ के सदृश माता का मिलना अति दुर्लभ है ।"
वस्तुतः इस संसार में पुत्र या पुत्री को दीक्षा का नाम लेते ही रोकने वाली तथा नाना प्रकार के विघ्नों का सूत्रपात करके बाधा देने वाली माताएँ ही मिलती हैं, स्वयं तैयार करके इस पथ पर बढ़ाने वाली नहीं । ऐसा सु-कार्य प्रभावती जी के जैसी नारी रत्न ही कर पाती हैं । जिन्होंने पुत्री को संमार्ग पर बढ़ाकर तुरन्त पुत्र को विरक्त एवं त्यागी बनने का निश्चय किया तथा उसके अनुरूप संस्कार डालने प्रारम्भ किये । यक्ष के समान सजग रहकर उन्होंने देवेन्द्र कुमार को भी जैन-शासन के अनुपम रत्न के रूप में निर्मित किया तथा समय होते ही उन्हें भी विश्वसंत, आध्यात्मयोगी, उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा. के चरणों में निखारने के लिये समर्पित कर दिया |
हुआ भी ऐसा ही, आज हम सभी देख रहे हैं कि श्री देवेन्द्र मुनिजी अपने नाम के अनुरूप ही जिस प्रकार बाह्य सौन्दर्य से मण्डित हैं, उसी प्रकार आन्तरिक गुग-माधुर्य एवं गहन ज्ञान से परिपूर्ण भी हैं । अपनी प्रकाण्ड विद्वत्ता से आपने साहित्य के भण्डार को अनेक रत्न-रूप रचनाएँ भेंट की हैं ।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि श्रमणीरत्न महासती जी श्री पुष्पवती जी एवं उनके लघु भ्राता परम तेजस्वी, विद्वदवर्श श्री देवेन्द्र मुनिजी, दोनों ही उनकी माता द्वारा श्रमण संघ को दी गई अभूतपूर्व भेंट हैं जिन्होंने संघ को उज्ज्वल बनाया है तथा उसके गौरव में चारचाँद लगाये हैं । अपनी पुत्री और पुत्र को अपार हर्ष सहित जिन-मार्ग पर बढ़ाकर श्री प्रभावतीजी भी चुप नहीं बैठ गई अपितु पुत्री और पुत्र के प्रति महान कर्त्तव्य को पूरा करते ही उन्होंने भी महासतीजी श्री सोहन कुँवरजो के पास आर्हती दीक्षा ले ली और जीवन पर्यंत संयम - साधना करके आत्म-कल्याण किया ।
गहनज्ञान एवं चिन्तन का अद्भुत समन्वय
महासतीजी का जैन दर्शन का अध्ययन बड़ा गहन एवं चिन्तन-युक्त है । मैंने देखा है कि आपका अधिकांश समय कुछ न कुछ पढ़ने और अर्जन करने में ही व्यतीत होता है न कि दर्शनार्थ आने वाली बहनों से निरर्थक वार्तालाप करने में । इसीलिए विविध विषयों का गूढ़ ज्ञान एवं उसे चिन्तन-मनन द्वारा आत्मसात करने की दिव्य विभूति आपको प्राप्त हुई है । भाषा एवं भावों की मौलिकता ने आपकी वाणी में आकर्षण एवं माधुर्य भर दिया है । आपकी प्रज्ञा जिस प्रकार अन्तर्मुखी है, उसी प्रकार बहिर्मुखी भी है जो कि आपके प्रवचनों में निरन्तर झलकती है । आपने संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश आदि सभी पर समान अधिकार प्राप्त किया है । यही कारण है कि आज हमारा मन निःसंकोच रूप से उन्हें श्रमणी - रत्न मानकर गौरव का अनुभव करता है । आपकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि अपनी प्रशंसा एवं प्रतिष्ठा
साधनारत महासती पुष्पवती | ८३
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