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साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
पुष्प व त्यटक म् --- राजेन्द्र मुनि शास्त्री एम. ए.
सद्ब्रह्मचर्यचरणाचित पादपद्म, मेधाविनि स्वमसि (देविसुर ) पुष्पवति प्रपूज्या । तेजस्विनी भवसि सर्व महासतीनाम्, हे ब्रह्मचारिणि महासती सम्प्रदीव्या ॥ १ ॥
- हे पूज्या पुष्पवती जी ! आपके द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने से आपके पवित्र चरणों की पूजा की जाती है । इसी कारण आपका तेज सभी महासतियों में अधिक चमकता है । हे महासती अखण्ड ब्रह्मचारिणी आप इसी तरह सदा चमकते रहिये ।। १॥
उच्चैः सदाचरणमस्ति सदा त्वदीयम्, तस्माज्जिनेन्द्र भगवांस्तव वाच्यतिष्ठत् । यद्यद्ब्रवीषि सदसि त्वमनिन्द्यवृत्ते तत्तज्जनेषु भवतीह
सुमन्त्र तुल्यम् ॥ २ ॥ - हे पूज्या ! आपका सदा सर्वदा का आचरण निरन्तर शुद्ध रहा है, अतएव आपकी पवित्र वाणी में जिनेन्द्र भगवान का नाम निवास करता है । जो जो आप अपने मुखारविन्द से शब्द रत्न प्रकटित करती हैं, वे वे सभी, हे स्तुत्य व्यवहार वाली पूज्या ! जन मानस में मन्त्र रत्न बन जाते हैं ।। २ ।।
देवा अपि प्रवचने तव दत्तचित्ताः का स्यात्कथा कथय तद्भुवि मानवानाम् । साधारणे तव मिथो जग भाषणेऽपि प्रज्ञाघनो द्रवति वाचि सुधा सुधाराः ॥ ३ ॥
- हे पूज्या ! आपके आकर्षक प्रवचन में देवगण भी मन सहित मग्न होकर खो जाते हैं, तब बतलाइये-मनुष्यों का तो क्या कहना ? आपकी साधारण बोलचाल के समय भी आपका बुद्धि बादल आपकी मधुर वाणी में अमृतधारा घोल देता है । तब प्रयत्नपूर्वक प्रवचन का तो कहना ही क्या ? || ३ ||
त्वद्दर्शनेन बहवोऽतुल भूरि भाग्याः, जाता नरोऽपि महिला लघु पुण्यशीलाः ।
सर्वत्र ते यश इदं भुवि चन्द्रतुल्यम्, ज्ञानञ्च मायिकतमो हत एव नित्यम् ॥ ४ ॥
- हे पूज्या आपके दर्शनों से अत्यन्त उत्तम भाग्यधारी नर-नारी क्षणार्ध ही में महा पुण्यशाली हो जाते हैं । आपका चन्द्र समान यश और भानु समान ज्ञान रात रूपी माया के अंधकार को सदा के लिए नष्ट कर देते हैं ॥ ४ ॥
प्रातः समस्त जनमानसमिन्दु वत्से, हर्षाम्बु वाक्चरल एवं सुभे मिलित्वा । कौचिद्यथा सुमुनि उद्भवति प्रभाते, प्रातः कमण्डलु -अपोऽमृत तुल्यमत्तः ॥ ५ ॥
- हे पूज्या आपका सच्चारित्र्य और अमृतझरिणी वाणी, दोनों मिलकर जैसे कोई दो मुनि सबेरा होते ही कमण्डलुओं में पानी भरकर पीते पिलाते हों, वैसे ही सम्पूर्ण मानवों के मन रूपी घड़ों को चन्द्रमा की भाँति हर्षामृत से भर देते हैं ।। ५ ॥
ईङ, महिम्न उभयेऽसुरदेव सङ्घाः, सद्ब्रह्मचर्यं परिचित सुव्रतस्य,
गायन्ति कीर्तिममलां मुनिराज सिद्धाः । सर्व व्रतेश्वर समाहितस्य ॥ ६ ॥
लुमूल प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन | ६५
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