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वह समय निकालता है न कोई प्रयत्न ही करता है । स्वयं का और संसार का पृथक्करण करने की क्षमता उसने खो दी है। यही कारण है कि इतनी प्रगति और उन्नति के बावजूद वह सुखी होने के बजाय दुःखी, संत्रस्त और अशान्त ही अधिक हुआ है।
_ 'स्व और पर का निर्णन करना एवं परिणति की निर्मलता करना' यह जैन दर्शन का प्रमुखनीति वाक्य है। इसी सन्दर्भ में अनित्य भावना का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि बिना अनित्य भावना के न स्व और पर का निर्णय हो सकता है और न ही परिणति निर्मल हो सकती
संसार और सांसारिक पदार्थों को न तो झूठा समझना है न स्वप्न समझना है। उन्हें अनित्य और परिवर्तनशील समझना है, ताकि उनके प्रति हमारी आसक्ति न हो । जैन धर्म त्याग और वैराग्य प्रधान धर्म है । त्याग और वैराग्य की पुष्टि तब होती है जब संसार और सांसारिक पदार्थों और सम्बन्धों की वास्तविकता समझमें आती है। अनित्यता संसार की वास्तविकता है। इसलिए जैन संतों ने वैराग्य के गीत गाए हैं । इस अनित्यता का अनुभव करना, देखना, परखना
और जांचना अनित्य भावना है। इस अनित्य भावना से भावक की दृष्टि जागृत रहती है। जो अनित्य भावना भाएगा, वह भीतर से जागृत रहेगा। यह अनित्य भावना जागृति का संदेश देती
संसार और सांसारिक भोग्य पदार्थों के प्रति आसक्ति रखना ही व्यक्ति के दुःख का कारण है । आसक्ति या ममत्व दुःख का मूल है। व्यक्ति की सारी अशान्ति व्यक्ति की सारी परेशानियां व्यक्ति के सारे कष्टों का जन्म आसक्ति से होता है । व्यक्ति दुःखी है, दुःखी होता है क्योंकि वह संसार के प्रति आसक्त है। और तब यह आसक्ति दस गुना बढ़ जाती है, जब व्यक्ति संसार को सांसारिक वस्तुओं को वास्तविक, नित्य अपना और अपरिवर्तनीय मानने लगता है । जितनी यह आसक्ति गहरी होगी, व्यक्ति का दुःख भी उतना ही गहरा होगा।
संसार में अक्सर ऐसा दिखाई देता है कि जब किसी की फैक्ट्री में या दूकान में आग लग जाती है और जब उसके मालिक को यह खबर दी जाती है कि आपकी फैक्ट्री या दूकान जलकर राख हो गई है तो उसे उस फैक्ट्री या दूकान नष्ट होने का हादसा इतने गहरे रूप में प्रभावित कर जाता है कि उसे हार्ट अटैक हो जाता है । वह सुन्न हो जाता है। उसे न खाना भाता है न पीना। वह भीतर से टूट कर बिखर जाता है क्यों? क्योंकि उसकी उन चीजों के प्रति गहरी आसक्ति
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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