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थी। उन चीजों को उसने हृदय से अपना माना था।
अपने आपको इन जड़ वस्तुओं से बांधना नहीं है। चाहे बड़ी शानदार कोठी हो, चाहे कार हो, चाहे दूकान हो चाहे पैसा हो फैक्ट्री हो चाहे पत्नी हो, (पत्नी के लिए पुरुष) चाहे पुत्र हो पुत्री हो चाहे पोता-प्रपोता हो, चाहे स्वयं का शरीर ही क्यों न हो । उनसे अपना हार्दिक स्नेह नहीं जोड़ना है। उन्हें अपना मानते हुए भी इस दृष्टिकोण का विकास करना है कि यह सब मेरा नहीं है। एक दिन यह सब मुझसे अलग होने वाला है। यह अनित्य और परिवर्तनीय है। यह कभी भी किसी भी क्षण मेरे हाथ से चला जा सकता है । जब वस्तुओं को इस प्रकार देखने की कला व्यक्ति को प्राप्त हो जाएगी तो ये चीजें सब उससे दूर हो जाएगी। संयोग से उसका पुत्र मर जाता है या संयोग से यदि दूकान या फैक्ट्री में आग लग जाती है तब वह रोएगा चिल्लाएगा नहीं, हाय-हाय करके छाती नहीं पिटेगा, मैं लूट गया में बरबाद हो गया, का शोर नहीं मचाएगा। उसे हार्ट अटैक नहीं होगा । वह खाना-पीना नहीं भूलेगा । उसके ओठों से मुस्कराहट गायब नहीं होगी । तब वह तटस्थ रहेगा । वह सोचेगा कि यह तो अनित्य था, नश्वर था, एक दिन नष्ट होने ही वाला था, कल न हुआ आज हो गया। इसमें रोने की क्या बात है । मेहनत करके इन्हें फिर पा लेंगे।
जो जिन का अनुयायी सच्चा जैन होता है, श्रावक होता है उसका दृष्टिकोण ऐसा ही होता है। यह जीवन जीने की कला है। अनित्य भावना व्यक्ति में इस कला का विकास करती है । यह व्यक्ति के भ्रम को दूर करती है । स्व और पर के अन्तर को स्पष्ट करती है।
अनित्य भावना जीवन से पलायन नहीं है । यह तो जीवन से जूझने का संदेश देती है। सब कुछ अनित्य है, हाथ से चला जाने वाला है, क्षण में नष्ट होने वाला है, परिवर्तनशील है। यह सोचकर नकारात्मक या निराशात्मक दृष्टि का विकास नहीं करना है । यह सोचकर हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहना है । यह सोचकर सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास करना है। यह सोचकर प्रचंड पुरुषार्थी बनना है । यह जीवन, यह यौवन, यह संपत्ति, यह अवसर फिर कहां? यह सोचकर इन्हें शुभ प्रवृत्तियों की ओर एक धार्मिक मोड़ देना है। जीवन, जगत और मृत्यु के प्रति एक दार्शनिक दृष्टिकोण का विकास करना है।
मनुष्य अपने जीवन, यौवन, संपत्ति और शरीर पर अत्यधिक आसक्ति रखता है जीवन के विषय में कहा जाता है ‘जीवन जगत में ऐसा सावन के मेघ जैसा'। यह जीवन की
अनित्य भावना
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