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अनित्य भावना
- आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरि जी परम करुणानिधि भगवान महावीर का शासन सभी प्राणियों के लिए कल्याणरूप रहा है। उनके शासन में अनेक महान साधक, योगी, तपस्वी आचार्य, उपाध्याय और मुनि हुए हैं जिन्होंने स्व और पर कल्याण में अपना जीवन यापन किया है। उपाध्याय श्री विनय विजयजी महाराज भी एक ऐसे ही योगी और साधक हुए हैं । उन्होंने कई आध्यात्मिक ग्रन्थों की रचना भी की है। उनकी एक उत्कृष्ट रचना है 'शान्तसुधारस' । इस ग्रन्थ में उन्होंने बारह भावनाओं का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने सर्वप्रथम स्थान अनित्य भावना को दिया है । इन भावनाओं पर बहुत कुछ कहा
और लिखा गया है, फिर भी इनकी गहनता वैसी ही है। यहां अनित्य भावना का विवेचन उपयुक्त और उपयोगी है।
आधुनिक वैज्ञानिक युग का तथाकथित प्रगतिशील मनुष्य अधिक से अधिक विकेन्द्रित होता जा रहा है। वह अपनी जमीन से उखड़ रहा है। सुख नाम की मृगतृष्णा की प्यास बुझाने के लिए वह बेतहाशा भागा जा रहा है। बाहर की चकाचौंध ने उसे इस कदर आकर्षित किया हुआ है कि उसने अपने भीतर पैठकर अपने विषय में सोचना ही बंद कर दिया है। उसकी दृष्टि उसकी सोच इतनी सीमित और संकीर्ण हो गई है कि मैं कौन हूं? संसार में आने का मेरा क्या उद्देश्य है? जीवन क्या है? मुझे अन्त में कहां जाना है? क्या प्राप्त करना है? संसार का और मेरा क्या सम्बन्ध है ? इस तरह के मूलभूत प्रश्न, जिनके विषय में उसे सोचते रहना चाहिए । उसके लिए न
अनित्य भावना
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