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जीवास्तिकाय, चैतन्यादि लक्षणों वाला, प्रथमजीव तत्व में लिख आये हैं (४)
पुद्गलास्तिकाय, कारण रूप परमाणुओं से ले के सर्व कार्यरूपवर्ण, गंध, रस, स्पर्श, शब्द, छाया, आतप, उद्योत, पृथिवी, चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारे, नरक, स्वर्गादि जो स्थान हैं, तथा पृथिवीकायिक का शरीर, एवं जल, अग्नि, पवन, वनस्पति के शरीर, यह सर्व पूर्वोक्त पुद्गलास्तिकायके काय हैं । और जितना कथन जैनमत के योनिप्राभृतादि शास्त्रों में, तथा जो जो दृश्यमान वस्तुओं में उलट पलट हो रहा है और जो विद्यमान सायंस विद्या से विचित्र प्रकार की वस्तु उत्पन्न होती है, यह सर्व पुद्गलास्तिकाय की शक्ति से हो रहा है५)।
जो नवे से पुराना आदि जगत् व्यवस्था का निमित्त है, सो कालद्रव्य है ।
जैनमत में छे (६) वस्तुओं को जीव सहित मानते हैं, जिनको षट्काय कहते हैं, तिनके नाम और स्वरूप लिखते हैं । पृथिवी काय १, अप्काय, २, तैजस्काय ३, वायुकाय ४, वनस्पतिकाय ५, और त्रसकाय ६ । इनमें जो पृथिवी है, सो सर्व एकेंद्रिय अर्थात् स्पर्शनेंद्रियवाले असंख्य जीवों के शरीरों का पिंड है पर इस पृथिवी के जिस भाग ऊपर अग्नि, क्षार, ताप, शीतादिका मिलाप होता है, तिस भाग के जीव मृत्यु हो जाते है, और तिन जीवों के शरीर रह जाते हैं, तिसको अचित्त पृथिवी कहते हैं। इस पृथिवी में समय समय असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं, और असंख्य जीव मृत्यु होते हैं, पर यह पृथिवी प्रवाह से इसी तरह अनादि अनंत काल तक रहेगी। चंद्र, सूर्य, तारे आदि सर्व इसी तरह जान लेने (१) पानी ही जिन जीवों का शरीर है, सो अपकायिक है।
जगत् में जितना पानी है, सर्व असंख्य जीवों के शरीर का पिंड है, अग्नि आदि शस्त्रों के लगने से अचित्त अप्काय कही जाती है, अन्यथा सर्व जल सजीव है २)॥
तैजस्काय सो अग्नि । अग्नि असंख्य जीवों के शरीर का पिंड है, जब अग्नि के जीव मृत्यु हो जाते हैं, तब कोयले भस्मादि जीवों के शरीर का पिंड रह जाता है(३) ॥
पवन भी असंख्य जीवों के शरीर का पिंड है, पवन के जीवों का शरीर नैत्र से देखने में नहीं आता है। और पंखे आदि से जो पवन होती है, तिस पवन में जीव नहीं होते हैं। क्योंकि सो असली पवन नहीं है किंतु पंखे आदि की प्रेरणा से पुद्गलों में पवन सदृश परिणाम होने से पवन मालूम होती है (४)।
वनस्पतिकाय, जो कंदमूल, काई, प्रमुख वनस्पति है, तिनमें अनंत जीव हैं, और जो वृक्षादि वनस्पति है, तिनमें असंख्य जीव हैं। जिस वनस्पति को अग्नि आदि शस्त्र का संबंध होवे, और जो वनस्पति सूक जावे, सो वनस्पति के जीवों का शरीर है। किंतु वनस्पति के जीव तिनमें नहीं
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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