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कर्म का भोक्ता, और साधन द्वारा सर्व कर्मका नाश करके मोक्षपद को प्राप्त होने वाला, द्रव्यार्थेसदाअनादि, अनंत, अविनाशी नित्य, और पर्यायार्थे अनेक अवस्थाओं की उत्पत्ति और विनाशवाला, ऐसे पूर्वोक्त विशेषण संयुक्त होवे तिसको जैनमत में जीव कहते हैं (१) ॥
इन पूर्वोक्त सर्व लक्षणों से जो विपरीत होवे, अर्थात् जिसमें चैतन्यादि लक्षण न होवें, सो अजीब :–धर्मास्तिकाय १, अधर्मास्तिकाय २, आकाशास्तिकाय ३, पुद्गल, (परमाणु से लेके जो २ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, शब्दवाला है, सो पुद्गल) ४, और काल ५ यह पांच द्रव्य अजीब है(२) ॥ जिसके उदय से जीव को सुख होवे, सो पुण्य (२)
जिसके उदय से जीव को दुःख होवे, सो पाप(४) ॥
मिथ्यात्व १, अविरति २, प्रमाद ३, कषाय ४, और योग ५, इन पांचों का नाम आश्रव तत्व
पूर्वोक्त आश्रव का जो निरोध करना, सो संवर तत्व है(६) ॥
कर्मों का अर्थात् स्पृष्ट, बद्ध स्पृष्ट, निद्धत्त और निकाचित रूप करके जो कर्म का बंध करा है, तिन कर्मों को तप, चारित्र, ध्यान, जपादि करके जीव से पृथक् करना, तिसका नाम निर्जरा तत्व है (७)
जीव और कर्म इन दोनों का लोलीय भाव परस्पर क्षीर नीरकी तरह जो मिलाप होना, सो बंध तत्व (८) ॥
स्थूल शरीर औदारिक, और सूक्ष्म शरीर तेजस्, कार्मण इन सर्व का आत्मा से जो साधन द्वारा अत्यंत वियोग अर्थात् फिर जीव के साथ कदापि बंध न होवे, तिसको मोक्ष तत्व कहते
हैं(९) ॥
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षट्द्रव्य के नाम और तिनका स्वरूप लिखते हैं ।
धर्मास्तिकाय, जीव और पुद्गल के चलने में सहायकारी, जैसे मछली के चलने में
जल (१) ॥
अधर्मास्तिकाय, जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायकारी, जैसे रस्ते में पंथी को
आकाशास्तिकाय, सर्व पदार्थों के रहने वास्ते अवकाश देता है, जैसे बेराको कुंडा (३) ।
वृक्ष (२) ।
जैन धर्म का स्वरूप
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