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(५)।
यह पूर्वोक्त पृथिवी, अप्, तैजस्, वायु, वनस्पति पांचों काय में केवल एक स्पर्शेद्रिय है, इस वास्ते इन पांचों काय के जीव एकेंद्रिय कहे जाते हैं, इनका विस्तार से स्वरूप प्रज्ञापना सूत्र में है, और इन पांचों में जीव की सिद्धि के प्रमाण का स्वरूप आचारांग सूत्र की नियुक्ति में है, और इन पांचों के जीव समय समय में परस्पर मरके उत्पन्न होते हैं।
त्रसकाय, तिसमें द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय, इन चारों जाति के जीवों को त्रसकाय कहते हैं।
अन्यमत वाले वनस्पति को पृथिवी के अंतर्भूत मान के पृथिवी, जल, अग्नि, पवन इनको चार तत्व वा चार भूत मानते हैं, तैसे जैनमत में नहीं मानते हैं। जैनमत में तो इनको जीव और जीवों ने शरीरपणे अनंत परमाणु ग्रहण करके कर्मों के निमित्त से असंख्य शरीरों का जो पिंड रचा है, सोई पृथिवी आदि पांच है, ऐसा मानते हैं। और यह पांचो प्रवाहसे अनादि से पहले २ जीव मृत्यु होते जाते हैं, और तिन ही शरीरों में वा अन्य शरीरों में नवीन जीव इनही पांचों में से मरके (पर्याय बदल के) उत्पन्न होते हैं, और तिनजीवों के विचित्र प्रकार के कर्मोदय से विचित्र प्रकार के रंग रूप हैं, और इनके शरीर में जो परमाणुओं का समूह है, तिनमें अनंत तरह की शक्तियां हैं, और तिनके परस्पर मिलने से अनेक प्रकार के कार्य जगत् में उत्पन्न होते हैं, और इनके परस्पर मिलने में काल १ स्वभाव २, नियति ३, कर्म ४, उद्यम परस्पर की प्रेरणा ५, इन पांचों शक्तियों से पदार्थों को मिलने से विचित्र प्रकार की रचना अनादि प्रवाह से हुई है, और होवेगी। यह पांच शक्तियां जड़ चैतन्य पदार्थों के अंतर्भूत ही है, पृथक् नहीं । इस वास्ते इस जगत् के नियमों का नियंता, और कर्ता ईश्वर को नहीं मानते हैं, किंतु जड़ चैतन्य पदार्थों की शक्तियां ही कर्ता और नियंता है ।
जैनमत में चारगति मानते हैं। नरकगति १, तिर्यंच गति २, मुनुष्य गति ३, और देव गति ४, इनमें से नरक उसको कहते है, जिसमें जीवों को नि:केवल दुःख ही है, किंचिन्मात्र भी सुख नहीं है, इन नरकवासियों के रहने का स्थान सात पृथिवियों में मानते हैं, तिनके नाम रल प्रभा १, शर्करप्रभा २, वालुप्रभा ३, पंकप्रभा ४, धूमप्रभा ५, तमःप्रभा ६, तम: तम: प्रभा ७ । यह सातों पृथिवियां अधोलोक में मानते है, और इन पृथिवियों का परस्पर अंतरादि सर्व स्वरूप प्रज्ञापनादि शास्त्रों में है, इन सातों पृथिवियों के रहनेवाले जीवों को नरकगतियें कहते हैं, तिनके दुखों का स्वरूप प्रज्ञापना, प्रश्न व्याकरण सूत्रकृतांगादि सूत्रों में है१)।
पृथिवी, जल, अग्नि, पवन, वनस्पति, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, और गाय, भैंस, घोड़ादि
जैन धर्म का स्वरूप
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