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अमेरिका के कुछ धार्मिक विचार वाले लोगों और सोसायटियों ने ईसाई मिशन हमारे देश में हमारी जनता को संस्कृति और धर्म की शिक्षा प्रदान करने हेतु भेजे। ईसाई मिशनरियों ने अज्ञानवश अथवा समुचित ज्ञान के अभाव में इस देश के विषय में अनेक मनगढंत, कपोल-कल्पित, झूठी, विकृत और भ्रांत धारणायें अमेरिकी समाज में फैलाई। श्री वीरचन्द राघवजी गांधी ने अपने अमेरिकी प्रवास के दौरान उनको यथा शक्ति दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने अमेरिकी समाज में भारत के विषय में फैलायी गई भ्रांत धारणाओं और विकृतियों पर कडा प्रहार किया। उनकी भाषा में प्रहारक शक्ति थी और निर्भयता भी। उन्होंने ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों और भ्रामक प्रचार की धज्जियां उड़ा दी और अमेरिकी समाज को सही स्थिति से अवगत कराया।
इस नरपुंगव का जन्म महुवा-काठियावाड़ में २५ अगस्त सन् १८६४ को एक संभ्रांत एवं प्रतिष्ठित संस्कारी जैन परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री महुवा के अत्यंत प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे। वे अपनी ईमानदारी, सत्य निष्ठा और धार्मिक विचारों के लिये विख्यात थे। वे एक समाज सुधारक भी थे और अपने जीवन में आदर्शों के प्रति वचनबद्ध थे । उनके पिताश्री ने उस समय प्रचलित कुछ सामाजिक बुराइयों के लिए संघर्ष किया और उनको नष्ट करने में उन्हें सफलता भी प्राप्त हई । श्री वीरचन्द भाई की प्रारंभिक शिक्षा भावनगर में हुई । वे प्रतिभाशाली तो थे ही उन्होंने मेट्रीक की परीक्षा में सर्व प्रथम स्थान प्राप्त किया। इस उपलक्ष्य में उन्हें छात्रवृत्ति प्राप्त हुई और वे उच्च अध्ययनार्थ भावनगर से बम्बई चले गये। वहाँ उन्होंने सुप्रसिद्ध एलफिन्स्टन कॉलेज में प्रवेश लिया और वहां से स्नातक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
२१ वर्ष की अल्पायु में श्री वीरचन्द भाई अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं प्रखर वक्तृत्व शक्ति के बल पर जैन ऐसोसियेशन आफ इंडिया के सचिव बन गये। उन्होने पालीताणा जुल्म केस और श्री मक्षीजी तीर्थ के केस में अच्छी सहायता की । सन् १८९१ में श्री सम्मेत शिखर तीर्थ पर चरबी बनाने के कारखाने के मामले में राय बहादुर बद्रीदासजी से सहयोग किया और अंततोगत्वा उस केस में विजय प्राप्त की। अंग्रेज शासकों ने हमारे परम पावन तीर्थ श्री सम्मेत शिखरजी, जहाँ बीस तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया है, की पवित्रता को स्वीकार किया और कारखाना बनाने की आज्ञा को निरस्त किया।
सन् १८९३ का वर्ष श्री वीरचन्द गांधी के जीवन का अत्यंत स्वर्णिम वर्ष कहा जा सकता है क्योंकि इसी वर्ष ने उन्हें पाश्चात्य जगत में जैन धर्म के महान उद्घोषक के रूप में विश्व मंच पाश्चिम में जैन धर्म एवं संस्कृति के सर्व प्रथम उद्घोषक : श्री वीरचन्द राघवजी गांधी
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