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पश्चिम में जैन धर्म एवं संस्कृति के सर्व प्रथम उद्घोषक : श्री वीरचन्द राघवजी गांधी
- मघराज मेहता
अत्यंत आकर्षक व्यक्तित्व, ऊँचा कद, सुदृढ़ और संतुलित शरीर, सुन्दर और आकर्षक नाक नक्श और ओज तथा प्रतिभा से झिलमिलाता चेहरा, ये संक्षेप में श्री वीरचन्द राघवजी गांधी के व्यक्तित्व की विशेषतायें थी। श्री वीरचन्द राघवजी गांधी का नाम जेहन में आते ही स्मरण हो आता है उस पुण्य श्लोक व्यक्ति का जिसने न्यायाम्भोनिधि, पंजाब देशोद्धारक, नवयुग निर्माता, वर्तमान युग के आद्य आचार्यश्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी म. सा. के चरणों में बैठकर
जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण बातों को हृदयंगम किया और सन् १८९३ में उनका प्रतिनिधित्व करने सर्वधर्म परिषद् में भाग लेने अमेरिका के चिकागों नगर चल पड़ा।
श्री वीरचंद राघवजी गांधी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पाश्चात्य जगत के समक्ष जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण बातों को अत्यंत स्पष्टता और बारीकी के साथ रक्खा और उनको बताया कि जैन धर्म न तो हिन्दू धर्म की शाखा है और न ही बौद्ध धर्म की बल्कि अपने आप में एक स्वतंत्र धर्म है
और भारत में अत्यंत प्राचीन काल से चला आ रहा है। यह वह समय था जब पाश्चात्य जगत को भारत की संस्कृति तथा जैन धर्म के विषय में अत्यंत न्यून ज्ञान था। भारत को अमेरिकी जनता ऐसा देश मानती थी जिसकी न तो अपनी कोई संस्कृति थी और न ही सभ्य जीवन । वे भारत को राजा महाराजाओं, चीतों, सर्पो और अंध विश्वासियों का देश मानते थे। उस समय
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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