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षष्ठस्थ मंगल के लिये ज्योतिष में कहा है
यदा शत्रु स्थाने गत बलि कुजे जन्म समये। पलायंते भीता सर्पद समेत शत्रुनिवहा ॥ विचारज्ञा प्रज्ञा, भवंति न सुखम मातु कुले।
विलयन्ते चार्या पुनरापि ॥२॥ अर्थात्- ऐसे जातक के शत्रु भयाक्रान्त हो, संग्राम से शीघ्र ही भाग जाते हैं । मातृ कुल में कष्ट, संचित धन नष्ट हो जाता है, परन्तु पूर्व धन के नष्ट होने के अनुस्तर अन्य धनों अर्थात यश विद्या, कीर्ति वैभव आदि की प्राप्ति होती है।
भट्ट नारायण के मतानुसार शत्रु स्थानस्थ मंगल सामर्थ्यशाली, शत्रु नाशक, विचारवान तथा प्रौढावस्था में सुखी और तीव्र पाचन शक्तिदाता होता है। ऐसा मंगल प्रभावक मुख जो शत्रु को क्रोध युक्त दिखाई दे, पर वास्तव में प्रशान्त, मेल जोल बढ़ाने वाला और सज्जनों का साथ देने वाला होता है । ऐसा व्यक्ति जन समूह का मुखिया होता है । षष्ठस्थ मंगल से अग्नि का भय भी होता है और वह मस्तक को राजपद देता है । वृद्धावस्था में ऐसा जातक यकृत रोग तथा संधिवात से पीड़ित हो सकता है परन्तु फिर भी उसमें कार्य शक्ति बनी रहती है।
इस प्रकार धन भाव से लेकर तन भाव तक समस्त ग्रह गुरु और मंगल के प्रभुत्व में हैं। मंगल क्रान्तिकारी अग्नि ग्रह माना गया है और गुरु सात्विक और गुरुता के कारण समस्त ग्रहों में श्रेष्ठ माना गया है। गुरु देवाचार्य भी है। जन्म समय का शुक्र जो दैत्याचार्य कहलाता है, दूसरे भाव में उच्च हो कर स्थित है। विरक्ति और ज्ञान प्रदाता शनि उच्च होकर नवम अर्थात् धर्म भाव में स्थित है। ज्योतिष के नियमानुसार जिस जातक के जन्म समय तीन या चार ग्रह उच्च के हों वह जातक प्रतापी, मंत्री या राजा होता है या राजा जैसा वैभव प्राप्त करता है । इस प्रकार महाराज साहिब की कुण्डली में पूर्ण रूपेण राज योग लागू होता है। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि राजयोग का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति राजा होगा, अथवा राजकीय पदवी ग्रहण करेगा। राजयोग का अर्थ होता है-प्रमुखता और प्रभाव जो राजा तुल्य हो।
महाराज साहिब की कुण्डली में केन्द्र अर्थात् प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशम भाव में कोई भी शुभ अथवा अशुभ ग्रह नहीं । ज्योतिष नियमानुसार साधारणत: केन्द्र और विशेष रूप से दशम भाव में शुभ ग्रह का अवस्थित होना शुभ माना गया है, पर ज्योतिष का एक नियम यह भी
श्रीमद् विजयानंद सूरि महाराज की जन्म कुंडली
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