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लीन हो जाते, संगीत के स्वर हवा में बहने लगते । आज भी उन्होंने मद्धिम स्वर में कोई जग न जाए इस भांति मधुरता से गाया । वे मद्धिम स्वर उस संगीतज्ञ के कान में पड़े और वह जागृत होकर ध्यान पूर्वक सुनने लगा जैसे जैसे वह सुनता गया, ध्यान लीन होता गया और हृदय एक परमानंदानुभूति से भर गया ।
प्रातः काल हुआ । संगीतज्ञ उपाश्रय में आचार्य श्री विजयानंद सूरि म. के पास आया । चरण छुए और बैठ गया । पूछा- आपने संगीत विद्या कहां से सीखी, मैंने रात को आपके भजन सुने ऐसा राग मैंने पहले कभी सुना नहीं था ।
आचार्य श्री मुस्कराए। उत्तर दिया :- मैं संगीत का क, ख, ग भी नहीं जानता हृदय में जो भाव आते हैं अनायास ही मुख से निकल जाते हैं ।
तब उस संगीतज्ञ की समझ में आया कि हृदय में अगर समर्पण और भक्ति हो तो संगीत स्वयं प्रस्फुटित होता है ।
लुटेरा बना रक्षक
पंजाब की सीमा बहुत पीछे रह गई थी । राजस्थान का रेगिस्तान आ गया था। चारों ओर रेत के टीले दिखाई देते थे । न पेड़ न पौधे न नदी न नाले । आचार्य श्री विजयानंद सूरि म. और उनका मुनि मंडल इस भयानक रेगिस्तान से गुजर रहे थे। रास्ता निर्जन था ।
इतने में दूर से एक काला कलूटा आदिवासी आता दिखाई दिया। उसके हाथ में धनुषबाण थे । भूले-भटके राहगिरों को लूटना उसका मुख्य व्यवसाय था । यही उसकी जीविका का साधन था । वह मुनि मण्डल के करीब आ गया और आते ही उसने चीखते हुए कहा :कुछ हो तुम्हारे पास मुझे दे दो ।
जो
आ. श्री विजयानंद सूरि म. ने समझाया- भाई, हम तो साधु सन्त हैं रूपया गहने हमारे पास कुछ नहीं ।
उस आदिवासी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा । उसने उतने ही जोर से और रोब से कहा :- तुम कुछ भी हो, लूटना मेरा काम है । इतना कहकर वह धनुष बाण सम्हालने लगा ।
आचार्य श्री विजयानंद सूरि म. ने देखा कि इसके आगे त्याग और अपरिग्रह की बातों का कुछ असर नहीं हो रहा है तो बात बदल कर उतने ही प्यार और स्नेह से फिर समझाया देखो भाई, तुम इस जंगल के राजा हो हम मुसाफिर तो तुम्हारे मेहमान हैं राजा का काम रक्षण करने का है । न कि लूट-खसोट का । अगर तुम हमें तीर से बेध भी डालोगे तो हम कुछ नहीं बोलेंगे । पर तुम
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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