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श्री विजयानंद सूरिः जीवन प्रसंग
- मुनि श्री अमेन्द्र विजय भक्ति का प्रभाव
नीरव रात्रि के तीन पहर बीच चुके थे। चारों ओर शान्ति का साम्राज्य फैला हुआ था। समस्त जगत निद्रालीन था। उस समय एक भक्त कवि का सुरीला स्वर हवा में बह रहा था। चारों ओर का वातावरण संगीतमय बन गया था। वह लय बद्ध मंद सुरीली तानें रात्रि की नीरवता को भंग कर रही थी। उस स्वर में कितनी कोमलता थी, कितना समर्पण था, कितनी भक्ति थी, कितना माधुर्य था । वह स्वर था कवि और भक्त हृदय आचार्य श्री विजयानंद सूरि म. का। उपाश्रय की दीवार से सटा एक मकान था। उस में एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ रहता था। उसने आचार्य श्री का स्वर सुना तो अपूर्व अह्लाद् से भर उठा । वह स्वयं संगीतज्ञ था, स्वयं गाता था शहर में उसका नाम था । पर ऐसा अद्भुत लालित्यपूर्ण राग उसके सुनने में कभी नहीं आया
था।
आचार्य श्री विजयानंद सूरि महान कवि थे। उनका हृदय भक्ति और समर्पण से परिपूर्ण था। जब हृदय भक्ति से भर जाता तब अपने आप भाव मुख से प्रस्फुटित होकर भजन का रूप धारण कर लेते थे। उन्हें न शब्द योजना मिलानी पड़ती थी न तुक । जो होता था सहज, उन्होंने न तो संगीत की शिक्षा पाई थी न छंद अलंकारों का अध्ययन किया था। फिर भी उनकी बराबरी कोई संगीतज्ञ नहीं कर पाता था।
कवि प्रतिभा उनमें नैसर्गिक थी। उनके स्तवन-भजन और पूजाओ में अनूठे भाव भरे पड़े हैं । जब चारों और नीरवता होती, जब सारा संसार सो जाता तब आचार्य श्री भगवत् भक्ति में श्री विजयानंद सूरि: जीवन प्रसंग
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