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श्रद्धाञ्जलि
आचार्य परमेष्ठी
पूज्य आचार्यश्री को सदा ही विषयों की आशा से अतीत, संसार के आरम्भ और अन्तरंग बहिरंग परिग्रहों के विकल्पों से विरहित, ज्ञान-ध्यान-तप में निरत, आत्माभिमुख, स्वरूपगुप्त एवं प्रभावशाली परमेष्ठी के रूप में पाया । अंतरंग की स्वच्छता यह आचार्यश्री का स्वभावसिद्ध सहज भाव था । पूर्वाचार्यों की विवेक-आलोक-संपन्न मोक्षतत्त्व की आचार्य महाराज के आत्मा में नित्य प्रतिष्ठा थी। रत्नत्रयात्मक मोक्षतत्त्व-साधनतत्त्व के रूप में बिना विकल्प देखनेपर ही आचार्यश्री के जीवन का यथार्थ मूल्यांकन हो सकता है। भेदाभेद रत्नत्रय धर्म ही वास्तव में मंगल है, लोकोत्तम है और सदा शरण है, इस महान् तत्त्व को पूज्य आचार्यश्री के निश्चल पवित्र जीवनी से हम निःशल्य होकर ही बहुत कुछ सीख सकते हैं । तपःपुनीत पवित्र आत्मा की पुण्यस्मृति सुखदा है।
बाहुबली (कुम्भोज)
२०१३।७३
समन्तभद्र
तपःपूत साधक और प्रभावक " परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराज देश की एक महान् विभूति थे । उन्होंने अपनी तपःपूत साधना और प्रभावक व्यक्तित्व के द्वारा जैन निर्ग्रन्थ परम्परा के लुप्तप्राय त्याग मार्ग की दक्षिण और उत्तर भारत में पुनःस्थापना की और आर्षप्रणीत जैन आचार-विचार का भारत के प्रत्येक कोने में व्यापक प्रचार किया। आज दिगम्बर जैन परम्परा के अधिकांश त्यागी पूज्य आचार्य महाराज के ही शिष्य-प्रशिष्य समुदाय में हैं। पूज्य आचार्य महाराज के चरणों में हम बारंबार 'नमोऽस्तु' करते हैं।
___ आप आचार्य शान्तिसागर दि. जैन जिननवाणी जीर्णोद्धारक संस्था का रौप्य महोत्सव मना रहे हैं । संस्था के सभी सदस्यों को हमारा शुभाशीर्वाद है।"
दिल्ली ५/४/७३
आ. देशभूषण
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