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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
सूत्रपात है । परमागम तत्त्व को कहता है । तत्त्व वस्तु का यथार्थ धर्म होता है । वस्तु स्वयं अनकान्त रूप है इसलिए अनेकान्त परमागम का बीज सिद्ध है । नित्य - अनित्य, सत-असत्, एक-अनेक, भेद - अभेद ये परस्पर सापेक्ष अनेक धर्म (अन्त) स्वयं वस्तु के अंगभूत हैं । सूक्ष्मदृष्टि के अवलंबन करने पर इन धर्मो में सामंजस्य सहज ही प्रतीत होता है । इसकी भी आचार्य ने वन्दना की है । लोकोत्तम पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ का अवतार विचक्षण विद्वानों के लिए है, इस लोकोत्तर श्रेणी स्वयं सुनिश्चित होती है ।
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किसी भी वस्तुतत्त्व का वर्णन मुख्यरूप से ( स्वरूप प्रधान - निश्चय प्रधान ) और उपचाररूप से ( निमितप्रधान = व्यवहारप्रधान ) होता है । अमूर्त चैतन्यघन पुरुष के ( आत्मा के ) यथार्थ ज्ञान के लिए उभय नयों का ज्ञान नितान्त आवश्यक होता है । स्वाश्रितो निश्वयः । शरीरादि से संयुक्त होनेपर भी आत्मा को विभक्त - एकत्व स्वरूप अर्थात् नोकर्म और भाव कर्मों से पृथक् और अपने गुणपर्यायों से तन्मय जानकर ही जीव स्वयं को शुद्ध अनुभव कर सकता है । इस शुद्ध स्वरूप को 'भूतार्थ ', ' परमार्थ' ह है और इसे जाननेवाले नय को निश्चय नय तथा कथन को अनुपचरित कथन कहते हैं । पराश्रितो व्यवहारः । शरीरादि परद्रव्यों के आश्रय से आत्मा को जानना जैसे यह आत्मा मनुष्य है, इत्यादि क उपचार कथन है । और ऐसा ज्ञान व्यवहारनय द्वारा होता है । इसका विषय अर्थात् अभूतार्थ है । निरपवाद वस्तुतत्व के परिज्ञान के लिए निम्न लिखित सूत्रों को हृदयंगम करने से आगामी आचार विषयक किसी प्रकार को विकल्प नहीं रहेगा । यह दृष्टि आचार की आधारशिला है सिद्धशिला तुल्य स्वयं सिद्ध है ।
ग्रंथरचना की प्रतिज्ञा में स्पष्ट उल्लेख से ग्रंथ की
निश्चय भूतार्थ (वस्तुस्वरूप ) और व्यवहार अभूतार्थ ( अवस्तुस्वरूप ) है । व्यवहार और निश्चय को यथार्थ जाननेवाले ही विश्व में तीर्थ निर्माता होते है ।
निश्चय श्रद्धासे विमुख व्यक्ति परद्रव्य में एकत्व प्रवृत्ति करता है । यही संसार 1
अज्ञानी को तत्त्व समझाने मात्र के लिए ' घी के घडे' की तरह व्यवहार कथन मात्र उपचार प्रयोग होता है ।
उपदेश के यथार्थ फल के इच्छुकों को निश्चय और व्यवहार दोनों को यथार्थ जान कर मध्यस्थ होना अनिवार्य है ।
परमार्थ से पराङ्मुख व्रत-तप बालव्रत बालतप है वे निर्वाण के कारण नहीं। उनमें समीचीन दृष्टि नहीं है और रागद्वेष की सत्ता भी है ।
चारित्र, शुद्धिस्वरूप है उसे पुण्यबंध का कारण मानना अज्ञानता है । बंध के कारण मिथ्याध्यवसायरागद्वेष होते है, न कि शुद्धि और वीतरागता ।
आत्मा के श्रद्धानज्ञान-स्थिरतारूप मोक्षमार्ग को न पहिचानकर केवल व्यवहाररूप दर्शन ज्ञान चारित्र की साधना को मोक्षमार्ग माननेवाले - शुभोपयोग में सन्तुष्ट होते है शुद्धोपयोगरूप मोक्षमार्ग में प्रमादी होते
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