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संपादकीय निवेदन
प. पू. चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागरजी महाराज को जगत को कल्याणपथ प्रदर्शन करनेवाले एकमात्र जगबंधु जिनधर्म का प्रसार और प्रभावना हो, जैनकुलोत्पन्न भाइयों का स्थितिकरण हो यह विकल्प शुभोपयोग की भूमिका में रहता था । इसकी पूर्ति के लिए उपलब्ध समस्त सामग्री का उन्होंने उपयोग किया । धर्मसंस्कृति का प्राण उसका साहित्यही होता है तथा उस संस्कृति का प्रचार और प्रभावना एकमात्र उस साहित्य की रक्षा, अध्ययन और प्रसार पर ही निर्भर हुआ करते हैं, यह बात आचार्यश्री ने भलीभांति जानकर अपने जीवनकाल में जिनवाणी की रक्षा तथा प्रसार के लिए श्रावकसमाज को जागृत करके यह कार्य करने की प्रेरणा दी । फलस्वरूप धवलादि प्राचीन सिद्धान्तों के जीर्णोद्धार के लिए उनका ताम्रपट निर्माण तथा प्रमुख दिगंबर जैन आचार्यों के ग्रंथ प्रामाणिक हिंदी टीकासमेत छपवाकर प्रसार के हेतु उनके विनामूल्य वितरण की योजना बनाई । इस कार्य के लिए (१) श्री १०८ चा च. आ. शांतिसागर दि. जैन जीर्णोद्धारक संस्था (२) श्रुतभांडार व ग्रंथ प्रकाशन समिति, फलटण इन संस्थाओं की निर्मिति संवत् २००१ तथा २०१० में हुई ।
संवत् २०२६ में उक्त संस्थाओं को सेवा करते पच्चीस साल पूर्ण हुए । संस्था के जीवन में पच्चीस साल कुछ बडा काल नहीं है । परंतु सार्वजनिक संस्था के विषय में समाज में जो उदासीनता रहती है उस दृष्टि से पच्चीस साल तक सेवा संस्था के लिए गौरव की बात है । इसलिए संस्था का रौप्यमहोत्सव तथा स्मरणिका प्रकाशित करने का विचार उद्भूत हुआ । रौप्यमहोत्सव की चर्चा करते समय प. पू. चा. च. १०८ आचार्यश्री के जन्म को सौ साल पूरे होते हैं, अतः उनका जन्मशताब्दी समारोह भी बड़े पैमाने पर संपन्न करने का विचार समाज के सामने प्रस्तुत हुआ ।
दिगम्बर जैन समाज के नवनिर्माण तथा जागरण का इतिहास पू. आचार्यश्री के कार्य का सादर निर्देश किए बगैर लिखा ही नहीं जा सकता। ऐसे महान् साधु की जन्मशताब्दी मनाना यह उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का सुअवसर था । उपरोक्त दोनों संस्थाओं की स्मरणिका को उनके स्मृतिग्रंथ का रूप मिल जाय ऐसी सूचना सामने आई । उक्त दोनों दृष्टिओं से स्मृतिग्रंथ निर्माण करने का संस्था के कार्यकारिणीने निर्णय किया ।
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