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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ३. देवागम-वृत्ति। यह लघु परिणाम की व्याख्या है। इसके कर्ता आचार्य वसुनन्दि हैं । यह न अष्टशती की तरह दुरवगम्य है और न अष्टसहस्री के समान विस्तृत एवं गम्भीर है । कारिकाओं का व्याख्यान भी लम्बा नहीं है और न दार्शनिक विस्तृत ऊहापोह है । मात्र कारिकाओं और उनके पद-वाक्यों का अर्थ तथा कहीं-कहीं फलितार्थ अतिसंक्षेप में प्रस्तुत किया गया है । पर हाँ, कारिकाओं के हार्द को समझने में यह वृत्ति देवागम के प्राथमिक अभ्यासियों के लिये अत्यन्त उपकारक एवं विशेष उपयोगी है। वृत्तिकार ने अपनी इस वृत्ति के अन्त में लिखा है कि 'मैं मन्दबुद्धि और विस्मरणशील व्यक्ति हूँ। मैंने अपने उपकारके लिये ही 'देवागम' कृति का यह संक्षेप में विवरण किया है।' उनके इस स्पष्ट आत्मनिवेदन से इस वृत्ति की लघुरूपता और उसका प्रयोजन अवगत हो जाता है ।
यहाँ उल्लेखनीय है कि वसुनन्दि के समक्ष देवागम की ११४ कारिकाओं पर ही अष्टशती और अष्टसहस्री उपलब्ध होते हुए तथा 'जयति जगति' आदि श्लोक को विद्यानन्द के निर्देशानुसार किसी पूर्ववर्ती आचार्य की देवागम व्याख्या का समाप्ति-मंगलपद्य जानते हुए भी उन्होंने उसे देवागम की ११५ वी कारिका किस आधार पर माना और उसका भी विवरण किया ? यह चिन्तनीय है। हमारा विचार है कि प्राचीन काल में साधुओं में देवागम का पाठ करने तथा उसे कण्ठस्थ रखने की परम्परा रही है । जैसा कि पात्रकेशरी (पात्रस्वामी) की कथा में निर्दिष्ट चारित्रभूषण मुनि को उसके कण्ठस्थ होने और अहिच्छेत्र के श्रीपार्श्वनाथ मन्दिर में रोज पाठ करने का उल्लेख है। वसुन न्दि ने देवागम की ऐसी प्रति पर से उसे कण्ठस्थ कर रखा होगा, जिस में ११४ कारिकाओं के साथ उक्त अज्ञात देवागम व्याख्या का समाप्ति मङ्गल पद्य भी किसी के द्वारा सम्मिलित कर दिया गया होगा और उस पर ११५ का संख्याङ्क डाल दिया होगा। वसुनन्दि ने अष्टशती और अष्टसहस्री टीकाओं पर से जानकारी एवं खोजबीन किये बिना देवागमका अर्थ हृदयङ्गम रखने के लिये यह देवागम वृत्ति लिखी होगी और उसमें कण्ठस्थ सभी ११५ कारिकाओं का विवरण लिखा होगा । और इस तरह ११५ कारिकाओं की वृत्ति प्रचलित हो गयी जान पड़ती है।
यह वृत्ति एक बार सन् १९१४, वी. नि. सं. २४४० में भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, काशी से सनातन जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत ग्रन्थाङ्क ७ के रूप में तथा दूसरी बार निर्णयसागर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। पर अब वह अलभ्य है। इसका पुनः अच्छे संस्करण के रूप में मुद्रण अपेक्षित है।
देवागमालङ्कार : अष्टसहस्री अब हम अपने मूल विषय पर आते हैं। पीछे हम यह निर्देश कर आये हैं कि आचार्य विद्यानन्द की 'अष्टसहस्री' देवागम की दूसरी उपलब्ध व्याख्या है। देवागम का अलङ्करण (व्याख्यान ) होने से
१. 'श्रीमत्समन्तभद्राचार्यस्य......देवागमाख्यायाः कृतेः संक्षेपभूतं विवरणं कृतं श्रुतविस्मरणशीलेन वसुनन्दिना जडमतिनाऽऽत्मोपकाराय ।'
देवागमवृत्ति, पृ. ५०, स० जैन ग्रन्थमाला, काशी।
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