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अष्टसहस्त्री
नहीं होती' । सम्भवतः इसीसे 'देवागम' स्याद्वाद की सहेतुक स्थापना करने वाला एक अपूर्व एवं प्रभावक ग्रन्थ माना जाता है और उसके सृष्टा आचार्य समन्तभद्र को 'स्याद्वादमार्गाग्रणी' कहा जाता । व्याख्याकारों ने इस पर अपनी व्याख्याएँ लिखना गौरव समझा और अपने को भाग्यशाली माना है।
व्याख्याएँ इस पर आचार्यों ने अनेक व्याख्यायें लिखी हैं जैसा कि हम पहले उल्लेख कर आये हैं। पर आज उनमें तीन ही व्याख्याएँ उपलब्ध हैं और वे निम्नप्रकार हैं
१ देवागमविवृति (अष्टशती), २ देवागमालङ्कार (अष्टसहस्री) और ३ देवागम-वृत्ति ।
१. देवागम विवृति। इसके रचयिता आचार्य अकलङ्कदेव हैं। यह उपलब्ध व्याख्याओं में सबसे प्राचीन और अत्यन्त दुरूह व्याख्या है । परिच्छेदों के अन्त में जो समाप्ति-पुष्पिका वाक्य पाये जाते हैं उनमें इसका नाम 'आप्त मीमांसा-भाष्य' (देवागम-भाष्य) भी उपलब्ध होता है। विद्यानन्द ने अष्टसहस्री के तृतीय परिच्छेद के आरम्भ में जो ग्रन्य-प्रशंसा में पद्य दिया है उसमें उन्होंने इस का 'अष्टशती' नाम भी निर्दिष्ट किया है । सम्भवतः आठसौ श्लोक प्रमाण रचना होने से इसे उन्होंने 'अष्टशती' कहा है । इस प्रकार यह व्याख्या देवागम-विवृति, आप्तमीमांसाभाष्य और अष्टशती इन तीन नामों से जैन वाङ्मय में विश्रुत है। इसका प्रायः प्रत्येक स्थल इतना जटिल एवं दुरवगाह है कि साधारण विद्वानों का उसमें प्रवेश संभव नहीं है। उसके मर्म एवं रहस्य को अवगत करने के लिये अष्टसहस्री का सहारा लेना अनिवार्य है। भारतीय दर्शन साहित्य में इस की जोड़ की रचना मिलना दुर्लभ है। न्यायमनीषी उदयन की न्यायकुसमाञ्जलि से इसकी कुछ तुलना की जा सकती है। अष्टसहस्री के अध्ययन में जिस प्रकार कष्टसहस्री का अनुभव होता है उसी प्रकार इस अष्टशती के एक-एक स्थल को समझने में भी कष्टशती का अनुभव उसके अभ्यासी को होता है ।
२. देवागमालङ्कार । यह दूसरी व्याख्या ही इस निबन्ध का विषय है। इस पर हम आगे प्रकाश डाल रहे हैं।
१. 'षट्खण्डागम' में 'सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता' (धवला, पु. १) जैसे स्थलों में स्याद्वाद का
स्पष्टतया विधि और निषेध इन दो ही वचनप्रकारों से प्रतिपादन पाया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन दो में पाँच वचन प्रकार और मिलाकर सात वचनप्रकारों से वस्तु-निरूपण का निर्देश किया है। पर
उसका विवरण एवं विस्तृत विवेचन नहीं किया (पंचास्ति० गा० १४)। २. विद्यानन्द, अष्टसहस्री, पृ. २९५ । ३. 'इत्याप्तमीमांसाभाष्ये दशमः परिच्छेदः ॥छ।॥१०॥' ४. अष्टशतीप्रथितार्था साष्टसहस्रीकृतापि संक्षेपात् ।
विलसदकलङ्कघिषणैः प्रपञ्चनिचितावबोद्धव्या ।। -अष्ट स. पू. १७८ ।
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