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मूलाचार का अनुशीलन श्रद्धान । आचार्य से दोष का निवेदन करना आलोचना है । मेरा दोष मिथ्या हो इस प्रकार की भावनापूर्वक प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमण है। आलोचना और प्रतिक्रमण को उभय कहते हैं। विवेक के दो प्रकार हैं गणविवेक और स्थानविवेक । कायोत्सर्ग को व्युत्सर्ग कहते हैं। अनशन आदि को तप कहते हैं। पक्ष मास आदि के द्वारा दीक्षा का छेदन छेद है । पुनः दीक्षा देना मूल है । परिहार के दो भेद हैं गण प्रतिबद्ध
और अप्रतिबद्ध । मुनियों के द्वारा नमस्कार न किया जाना गण प्रतिबद्ध परिहार है। गण से अन्यत्र जाकर मौनपूर्वक तपश्चरण करना अगण प्रतिबद्ध परिहार है । तत्त्वरुचि होना या क्रोधादि न करना श्रद्धान है । दोष के अनुरूप प्रायश्चित्त देने का विधान है (मूला., ५।१६५)। तत्त्वार्थसूत्र में मूल के स्थान में उपस्थापना है किन्तु अर्थ में अन्तर नहीं है।
आर्या के साथ संपर्क निषिद्ध-मूलाचार (४+१७७ आदि) में लिखा है कि आर्या के आने पर मुनि को ठहरना नहीं चाहिए अर्थात् उसके साथ एकाकी नहीं रहना चाहिए और धर्मकार्य के सिवाय वार्तालाप भी नहीं करना चाहिए । यदि वह एकाकी कुछ प्रश्न करे तो उत्तर नहीं देना चाहिए। यदि वह गणिनी को आगे करके पूँछे तो उत्तर देना चाहिए।
यदि कोई तरुण मुनि तरुण आर्या के साथ वार्तालाप करता है तो वह पांच दोषों का भागी होता है । मुनि को आर्या के निवास स्थान पर नहीं ठहरना चाहिए । न वहाँ स्वाध्याय आदि करना चाहिए। क्यों कि चिरकाल के दीक्षित वृद्ध आचार्य और बहुश्रुत तपस्वी भी काम से मलिन चित्त होने पर सब नष्ट कर देते हैं। यदि ऐसा न हो तो भी क्षणभर में अपवाद फैल जाता है अतः कन्या, विधवा, आर्या आदि का सहवास नहीं करना चाहिए । इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि यदि आर्या का संसर्ग सर्वथा त्याज्य है तो उनका प्रतिक्रमणादिक कैसे सम्भव है ? इसके उत्तर में कहा है कि आर्यायों का गणधर गम्भीर, मितवादी चिरदीक्षित पापभीरु दृढ़व्रती निग्रह अनुग्रह में कुशल मुनि होता है। यदि इन गुणों से रहित व्यक्ति आर्याओं का गणधर होता है तो वह गण आदि घातक होने से चार प्रायश्चित्तों का भागी होता है।
आर्या की चर्या-आर्या की चर्या भी मुनि की तरह होती है। उनका वस्त्र तथा वेश विकार रहित होता है, शरीर मल से लिप्त रहता है, तप संयम स्वाध्याय में अपना समय बिताती है। एक साथ दो तीन या अधिक रहती हैं। बिना प्रयोजन किसी के घर नहीं जाती। जाना आवश्यक हो तो गणिनी से पूछकर अन्य आर्यिकाओं के साथ जाती है; रोना, स्नान, भोजन बनाना आदि नहीं करती। मुनियों के पैर धोना, तेल लगाना, पग चम्पी भी नहीं करती। भिक्षा के लिए तीन या पांच या सात आर्यिकाएँ वृद्धाओं के साथ जाती हैं । आचार्य को पांच हाथ की दूरी से, उपाध्याय को छह हाथ की दूरी से और साधु को सात हाथ की दूरी से गवासन नमस्कार करती हैं।
इस प्रकार मूलाचार में मुनियों और आर्यिकाओं के आचार का वर्णन है। जो मुनियों और आर्यिकाओं को विशेष रूप से पढ़ना चाहिये ।
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