________________
८४
आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ कहते हैं। प्रतिक्रमण के छै भेद हैं—दैवसिक, रात्रिक, ऐपिथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक । मूलाचार (७/१२९) में कहा है
सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स ।
अवए हे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ।। भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर का धर्म सप्रतिक्रमण था अपराध हुआ हो या न हुआ हो प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है। शेष बाईस तीर्थङ्करों के धर्म में अपराध होनेपर प्रतिक्रमण किया जाता ।
तथा मध्यम तीर्थङ्करों के समय में जिस व्रत में दोष लगता था उसी का प्रतिक्रमण किया जाता था किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के धर्म में एक व्रत में भी दोष लगने पर पूरा प्रतिक्रमण किया जाता था इसका कारण बतलाते हुए लिखा है कि मध्यम तीर्यङ्करों के शिष्य दृढ़बुद्धि, स्थिरचित और अमूढमना होते थे अतः वे जो दोष लगाते थे उसकी गर्दा करने से शुद्ध हो जाते थे। किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के शिष्य साधु चलचित्त और मूढमन होते थे इस लिये उन्हे सर्व प्रतिक्रमण करना आवश्यक है।
पच्छणं आवश्यक प्रत्याख्यान है । अतिचार के कारण सचित्त अचित्त और सचित्ताचित्त द्रव्य के त्याग को और तप के लिये प्रासुक द्रव्य से भी निवृत्ति को प्रत्याख्यान कहते हैं। उसके दस भेद हैं-- अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, निखण्डित, साकार, अनाकार, परिमाणगत, अपरिशेष, अध्वानगत, सहेतुक । मूलाचार में (७।१३७-१४९) सब का स्वरूप बतलाया है। काय अर्थात् शरीर के उत्सर्ग-परित्याग को कायोत्सर्ग कहते हैं
वोसरिद बाहु जुगलो चदुरंगुल मन्तरेण समपादो।
सव्वगं चलणरहिओ काउस्सग्गो विसुद्धो दु॥ (७।१५३) दोनों हाथों को नीचे लटकाकर, दोनों पैरों को चार अंगुल के अन्तराल से बराबर में रखते हुए खड़े होकर समस्त अंगों का निश्चल रहना विशुद्ध कायोत्सर्ग है।
गुप्तियों के पालन में व्यतिक्रम होने पर, व्रतों में व्यतिक्रम होने पर षट्काय के जीवों की रक्षा में या सात भय और आठ मदों के द्वारा व्यतिक्रम होने पर उसकी विशुद्धि के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है । कायोत्सर्ग का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। कायोत्सर्ग का प्रमाण विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न बतलाया है जैसे दैवासिक प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का प्रमाण १०८ उच्छ्वास है रात्रिक प्रतिक्रमण में ५४ उच्छ्वास है।
__ आचार्य कुन्द कुन्द के नियमसार में भी आवश्यकों का कथन है वह इससे भिन्न है। उन्हों ने कहा है वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय आलोचना तो स्वाध्याय है। यदि प्रतिक्रमणादि करने में शक्ति है तो ध्यानमय प्रतिक्रमण कर ।
प्रायश्चित्त-जिस तप के द्वारा पूर्वकृत पाप का शोधन किया जाता है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । प्रायश्चित्त के दस भेद हैं—आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org