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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
२. मुनि आचार का प्रथम ग्रन्थ
एक तरह से दिगम्बर परम्परा के आद्य आचार्य कुन्दकुन्द थे । सर्वप्रथम उन्हीं के ग्रन्थों में सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट निषेध मिलता है और ये ही वे कारण हैं जिनसे संघभेद हुआ । आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुड़ों में विशेष रूप से मुनियों को लक्ष कर के ही धर्म का निरूपण है, चारित्रपाहुड, भावपाहुड, मोक्षपाहुड, लिंगपाहुड, नियमसार और प्रवचनसार में मुनिधर्म का ही व्याख्यान है । किन्तु इनमें से किसी भी ग्रन्थ में मुनिधर्म के आचार का सांगोपांग वर्णन नहीं है । यद्यपि प्रवचनसार के चारित्राधिकार में मुनिदीक्षा, अठ्ठाईस मूलगुण छेदोपस्थापना आदि का कथन है । किन्तु वह तो साररूप है, विस्तार रूप नहीं, इसीसे इनमें से किसी भी ग्रन्थ का नाम आचारपरक नहीं है और न कोई ग्रन्थ लुप्त आचाराङ्ग की समकक्षता ही करता है अतः दिगम्बर परम्परा में एक एैसे ग्रन्थ की कमी बनी रहती है जो मुनिआचार का प्रतिनिधि ग्रन्थ हो । उस कमी की पूर्ति मूलाचार ने की है। उसके टीकाकार आचार्य वसुनन्दी ने अपनी उत्थानिका में जो भाव मूलाचार ग्रन्थ के प्रति प्रकट किये हुए है उनसे भी हमारे कथन का समर्थन होता है । उन्होंने लिखा है---
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श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशसहस्रपरिमाणं मूलगुण - प्रत्याख्यानसंस्तर - स्तवाराधना समयाचार-पश्चाचारपिण्डशुद्धि - षडावश्यक - द्वादशानुप्रेक्षा - अनगारभावना - समयसार - शीलगुणप्रस्तार - पर्याप्त्याद्यधिकारनिबद्धमहार्थगम्भीरं लक्षणसिद्धपदवाक्य वर्णोपचितं घातिकर्मक्षयोत्पन्न केवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचित - षड्व्यनवपदार्थजिनवरोपदिष्टं द्वादशविधऽनुष्ठानोत्पन्नानेकप्रकारर्द्धिसमन्वितगणधरदेवरचितं मूलगुणोत्तरगुणस्वरूपविकल्पोपायसाधनहायफलनिरूपणप्रवणमाचाराङ्गमाचार्य-पारम्पर्य - प्रवर्तमानमल्पबलमधायुः शिष्यनिमित्तं द्वादशाधिकारैरूपसंहर्तुकामः स्वस्य श्रोतॄणां च प्रारब्धकार्यप्रत्यूहनिराकरणक्षमं शुभपरिणामं विदधच्छ्रीवहकेराचार्यः प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकारप्रतिपादनार्थं मङ्गलपूर्विका प्रतिज्ञां विधत्ते ।
श्रुतस्कन्ध के आधारभूत, अठारह हजार पद परिमाणवाले, जो मूलगुण, प्रत्याख्यान, संस्तरस्तव, समयाचार, पञ्चाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगार भावना, समयसार, शीलगुणप्रस्तार और पर्याप्ति, अधिकार नामक अधिकारों में निबद्ध और बड़ा गंम्भीर है। लक्षण - सिद्ध पद - वाक्य और वर्णों से समृद्ध है, घातिकर्मों के क्षय से उत्पन्न केवल ज्ञान के द्वारा समस्त गुणपर्यायों से युक्त छः द्रव्य और नौ पदार्थो ज्ञाता जिनवर के द्वारा उपदिष्ट है, बारह प्रकार के तपों के अनुष्ठान से उत्पन्न अनेक प्रकार की ऋद्धियों 'युक्त गणधर देव के द्वारा रचा गया है और मूल गुण तथा उत्तर गुणों के स्वरूप, भेद, उपाय, साधन, सहाय और फल निरूपण करने में समर्थ है, उस आचार्य परम्परा से प्रवर्तमान आचाराङ्ग को अल्प बल बुद्धि आयुवाले शिष्यों के लिये बारह अधिकारों में उपसंहार करने की इच्छा से अपने तथा श्रोताओं के प्रारब्ध कार्य में आने वाले विघ्नों को दूर करने में समर्थ शुभ परिणाम को करके श्री वहकेराचार्य सब से प्रथम मूलगुण नामक अधिकार का कथन करने के लिये मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं, ।
यह उत्थानिका षट्खण्डागम और कसायपाहुड की टीकाओं के आरम्भ में वीरसेन स्वामी द्वारा रची गई उत्थानिकाओं के ही अनुरूप हैं। टीकाकार वसुनन्दि यह मानते हैं कि यह मूलाचार गणधर
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