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मूलाचार का अनुशीलन कैलाशचन्द्र शास्त्री, संपादक जैनसंदेश, बनारस
१. मुनि आचार का महत्त्व जैन धर्म आचार प्रधान है। आचार को चारित्र भी कहते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के प्रारम्भ में ' चारित्तं खलु धम्मो' लिखकर चारित्र को ही धर्म कहा है। चारित्र के दो प्रकार हैं । एक श्रावकों को चारित्र, दूसरा मुनियों का या श्रमणों का या अनगारों का चारित्र, किन्तु निवृत्तिप्रधान जैन धर्म का मौलिक चारित्र मुनियों का चारित्र है। पञ्च परमेष्ठी में सब नीचे का दर्जा मुनियों का है। मुनिधर्म से ही सर्वोच्च परमेष्ठी पद प्राप्त होता है । प्राचीन परम्परा के अनुसार यह विधान था कि मुनि को अपने श्रोताओं के सन्मुख सर्वप्रथम मुनिधर्म का ही उपदेश देना चाहिये, श्रावक धर्म का नहीं, क्यों कि संभव है श्रोता उच्च भावना लेकर आया हो और श्रावक धर्म को सुनकर वह उसी में उलझ जाये । पुरुषार्थसिद्धयुपाय के प्रारम्भ में आचार्य अमृतचन्द्रजी ने इस विधान का निर्देश करते हुए लिखा है
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्यभगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥१८॥ अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः ।
अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥१९॥ जो अल्पबुद्धि उपदेशक मुनिधर्म का कथन न करके गृहस्थधर्म का उपदेश करता है उस उपदेशक को जिनागम में दण्ड का पात्र कहा है। क्योंकि उस दुर्बुद्धि ने क्रम का उल्लंघन करके धर्म का उपदेश दिया और इससे अति उत्साहशील श्रोता अस्थान में सन्तुष्ट होकर ठगाया जाता है।
इसमें मुनिधर्म का प्रथम व्याख्यान न करके गृहस्थ धर्म के व्याख्याता को अल्पमति और दुर्बुद्धि कहा है तथा गृहस्थ धर्म को अपद कहा है। वस्तुतः मुमुक्षु का वह पद नहीं है। पद तो एकमात्र मुनिधर्म है । आचाराङ्ग में उसी का कथन था, श्रावक धर्म का नहीं, तथा उससे द्वादशांग में प्रथमस्थान इसीसे प्राप्त है । अतः जैन धर्म में मुनियों का चारित्र ही वस्तुतः चारित्र है, असमर्थ श्रावक भी इसी उद्देश से श्रावक धर्म का पालन करता है कि मैं आगे चलकर मुनिधर्म स्वीकार करूंगा। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं उसीकी सोपान रूप हैं।
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