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________________ ६० आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ दृष्टि से ज्ञान आत्मसंवेदन में ही रत है। इस कथन से कहीं सर्वज्ञता की मान्यता और सिद्धि में बाधा नहीं समझना चाहिए। कारण यह है की उस स्वाभाविक ज्ञान में अशेष पदार्थसमूह ज्ञेयाकाररूप से झलकता है यह वस्तुस्थिति है। 'भगवान् सर्वज्ञ है । ऐसा कहने में आचार्यों का आशय केवल यही समझना चाहिए। इस प्रकार व्यवहार से आत्मा की अर्थों में अर्थों की ज्ञान में परस्पर वृत्ति होने पर भी केवली भगवान् उन अर्थों को न ग्रहण करते हैं, न छोडते हैं, न उन पदार्थों के रूप में परिणमित होते हैं, वे मात्र उन्हें जानते ही हैं। ऐसा ज्ञान केवली-भगवान् को ही होता हो और अल्पज्ञों का नहीं होता हो ऐसी आकांक्षा से आकुलित होने की आवश्यकता नहीं है स्वभाव का संवेदन तो श्रुत ज्ञान में भी सर्वत्र होता है। किसी भी सम्यग्ज्ञान में या श्रुतज्ञान में जो क्षयोपशमिकता या सूत्र की उपाधि रहती है, उससे उसकी समीचीनता में या ज्ञान स्वभाव में कोई बाधा नहीं आती, वस्तु दृष्टि से ज्ञान की उपाधि गौण होती है । ऐसी स्थिति में ज्ञप्ति के सिवा और शेष रहता ही क्या ? आत्मा के ज्ञानस्वभाव की श्रद्धापूर्वक ज्ञान चारित्र की साधना से, शुद्धोपयोग से शुद्ध आत्मा की साक्षात् प्राप्ति होती है । इस ज्ञप्ति स्वभाव के कारण ही ज्ञान स्वपरिच्छेदक कहा जाता है। ज्ञेय संपूर्ण विश्ववर्ती अशेषपर्याय सहित पदार्थसमूह है। इन्द्रिय ज्ञान की विषय-मर्यादा वर्तमान पर्यायों तक ही सीमित होती है । परंतु अतीन्द्रिय ज्ञान में अतीत और अनागत पर्यायें भी वर्तमान की तरह ही प्रतिबिंबित होती हैं, जैसे भित्ती पर भूत या भावी तीर्थकारों के चित्र उत्कीर्ण होते हैं उसी तरह ज्ञान स्वभाव की अपनी विशिष्ट दिव्यता है । समस्त पदार्थ ज्ञान में झलकते हुए भी उस स्वाभाविक ज्ञान में ज्ञेय पदार्थों के अनुसार रागपरिणति नहीं होती। यदि ज्ञान का ज्ञेयानुसार परिणमन है तो वह ज्ञान न क्षायिक है न अतींद्रिय है । ज्ञान के कारण ज्ञेय परिणति नहीं होती, ज्ञेय परिणति तो उदय प्राप्त कर्मों में राग द्वेष के कारण ही होती है । भगवान् को उक्त प्रकार की ज्ञेयार्थ परिणमन रूप क्रिया होती ही नहीं, मात्र ज्ञप्ति-क्रिया होती है। यहाँ यह आशंका हो सकती है कि भगवान् के स्थान विहार आदि क्रियाएँ कैसी पाई जाती है ?' उत्तर यह है भगवान के उक्त क्रिया अघाति कर्मोदय के फल रूप से पायी जाती है, किन्तु वे मोह के बिना इच्छा बिना ही घाति कर्म के क्षय से अविनाभावी होने के कारण उपचार से क्षायिक कही जाती है। क्रिया का बन्ध रूप कार्य भी वह नहीं पाया जाता है। इससे अन्य छद्मस्थ और मोहोदयापादित प्राणीयों की क्रियाएँ भी उनके स्वभाव में विघात नहीं करती हो ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्यों कि यदि ऐसा माना जायगा तो संसार भी नहीं रहेगा, आत्मा शुभाशुभरूपेण परिणमित होता हआ कर्म संयोग को प्राप्त होता है। केवली भगवान् की क्रियाएँ राग बिना सहज रूप से पायी जाती है। १. प्रवचनसार, गाथा ४४-४५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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