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प्रवचनसार
स्वरूप में तन्मय प्रवृत्ति का नाम चारित्र और वही आत्मा का स्वभाव होने से धर्म है, समवस्थित आत्मगुण होने से साम्य है, रागद्वेष-मोहरहित आत्मा का निर्विकार परिणाम ही साम्य है, अपने निर्विकार स्वभाव में स्थित होना ही धर्म है । धर्म कोई धर्म परिणत आत्मा से अलग वस्तु नहीं है। प्रत्येक वस्तु परिणाम स्वरूप है। आत्मा भी परिणमन स्वभावी होने से स्वयं अशुभ, शुभ या शुद्ध परिणमता है । शुद्धोपयोग से परिणत धर्मी आत्मा मोक्ष सुख को शुभोपयोग से परिणत धर्मी जीव स्वर्गसुख को और धर्मपराङ्मुख अशुभोपयोग से परिणत आत्मा तिर्यंचनरकादि गतिसंबंधी दुःख को प्राप्त करता है। शुद्धोपयोगी धर्मात्मा धर्मशास्त्र और वस्तुतत्त्व का ज्ञाता, संयमतप से युक्त विरागी और समतावृत्ति का धारक होकर कर्म रजको दूर करके विश्व के समस्त ज्ञेयव्यापी ज्ञानस्वभावी आत्मा को स्वयं अन्य किसी भी कारक की अपेक्षा किये बिना ही प्राप्त करता है।
निश्चय से आत्मा का परके साथ कारक संबंध न होने से बाह्य साधन की चिंता से आकुलित होने की उसे आवश्यकता नहीं है। ज्ञान और सुख आत्मा का स्वभाव है और स्वभाव में पर की अपेक्षा होती नहीं, इसलिए स्वयंभू आत्मा को इन्द्रियों की अपेक्षाविना ही ज्ञान और सुखस्वभाव प्रगट होता है। स्वभावस्थित केवली भगवान् के शारीरिक सुखदुःख भी नहीं होता है। उनका परिणमन ज्ञेयानुसार न होकर, मात्र ज्ञानरूप होने से सर्व पदार्थ समूह अपने-अपने समस्त पर्याय सहित उनके ज्ञान में साक्षात् झलकते है । उन्हें कुछ भी परोक्ष नहीं होता। उनका ज्ञान सर्वग्राही होने से आत्मा भी उपचार से 'सर्वगत' कहलाता है। चक्षु विषय में प्रवेश न करके भी देखता है उसी तरह जानते समय ज्ञान ज्ञेय में न जाता है न ज्ञेय ज्ञान में जाते है। आत्मा स्वभाव से जाननेवाला है। पदार्थ स्वभाव से ज्ञेय है। उनमें ज्ञेय ज्ञायक रूप से व्यवहार होता है वह परस्पर की अपेक्षा से होता है।
आत्मा और अन्य पदार्थ इनमें ज्ञेयज्ञायक व्यवहार होनेपर भी न आत्मा पदार्थों के कारण ज्ञायक या ज्ञाता है तथा न पदार्थ भी ज्ञान के कारण ज्ञेय है। आत्मा स्वभाव से ज्ञानपरिणामी हैं और पदार्थ स्वभाव से ज्ञेय है। आत्मा के ज्ञान में ज्ञान की स्वच्छता के कारण पदार्थ स्वयं ज्ञेयाकार रूप से झलकते हैं, प्रतिबिंबित होते हैं । स्वयंभू आत्मा का ज्ञान स्वाभाविक रूप से परिणमता हुआ अतीन्द्रिय होने से उस ज्ञान की स्वच्छता में सर्व पदार्थ समूह अपने पर्यायसमूह सहित प्रतिबिंबित होते हैं, और आत्मा ऐसे सहज ज्ञानरूप से परिणमित होकर अपने स्वभाव के अनुभव में तन्मय होता है । ज्ञान में संपूर्ण वस्तुमात्र अंतर्व्याप्त होने से ज्ञान उपचार से 'सर्वगत' कहलाता है। वैसे ही आत्मा ज्ञानप्रमाण होने से ज्ञान ज्ञेयप्रमाण और ज्ञेय वस्तुमात्र होने से आत्मा भी 'सर्वगत' कहलाता है । तथा ज्ञानगत ज्ञेयकारों का कारण बाह्य में उपस्थित पदार्थों के आकार होने से उपचार से ज्ञेयभूत पदार्थ भी ' ज्ञानगत' कहलाते हैं।
ऐसा कयन व्यवहार ही है। वास्तव में जानतेसमय आत्मा नेत्र की तरह कहीं ज्ञेयों में प्रविष्ट नहीं होता तथा ज्ञेय वस्तु भी अपना स्थान छोडकर ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होती। दोनों में ज्ञायक तथा ज्ञेय स्वभाव के कारण ऐसा व्यवहार होता है। मानो स्वाभाविक ज्ञान ने समस्त ज्ञेयाकारों को पीलिया हो ऐसा कारण ज्ञेयज्ञायक व्यवहार के कारण ही ज्ञान सर्वगत और जीव सर्वज्ञ कहा जाता है। वास्तव में अन्तरंग
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