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श्री समयसार
२५ अनुभूति में साधक न होने से हेय है। वस्तुतत्त्वका जानना (आत्मतत्त्व) अलग बात है और उसका अनुभव करना यह और बात है। आत्मतत्त्व के ज्ञान और निर्णय के लिए प्राथमिक भूमिका में अवलंबनभूत प्रस्तुत भेददृष्टि या व्यवहारदृष्टि एकस्वरूप सुंदर आत्मा की समाधि में - आत्मानुभूति में बाधकही होती है । जानने के लिए मात्र वह प्रयोजनभूत है। आत्मानुभूति में तो अभेद प्रधान शुद्धनय साधकतम होता है।
और आत्मानुभूति शुद्धनयरूप परिणाम है। यह ग्रंथ अनुभव प्रधान होने से उसी निश्चयदृष्टि का सर्वत्र धाराप्रवाही रूप से अवलंब होना यह स्वाभाविक है और प्रतिज्ञानुसार विषयाविष्कार के लिए अनुरूप ही है। ग्रंथ अनुभवप्रधान होने से शुद्धनयका ही अधिकार है और उसे आचार्यश्री ने अच्छी तरह से आखरी तक निभाया है।
समयसार की प्रथम बारह गाथाएं पिठिका बंध स्वरूप हैं। उनमें ग्रंथ का प्रयोजन, प्रतिपाद्य विषय (शुद्ध आत्मा का स्वरूप) प्रतिपादन दृष्टिकोण इनका दिग्दर्शन है, प्रसंगसे आवश्यक व्यवहार नय और निश्चयनय का स्वरूप उनके विषय, उनका परस्पर सामञ्जस्य, उनकी हेयोपादेयता, अपनी-अपनी मर्यादा
आदि मूल विषयों का कथन है । सिद्धांत ग्रंथों में गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि कर्मसंयुक्त जीवकी दशाओं का वर्णन आया है तथा मुनि व श्रावकों के आचारों का चरणानुयोग संबंधी ग्रंथों में सुव्यवस्थित वर्णन आया है। इसका प्रयोजन पदार्थों का उनके भेदरूप गुणपर्यायों का तथा उनके परिकरों का ज्ञान करवाना तथा अंतरंग विशुद्धता के साथ होनेवाली यथास्थान बाह्य प्रवृत्तियां किस प्रकार होती है इसका परिज्ञान करवाना मात्र है। इस निरूपण में व्यवहार कथन की मुख्यता है । और उसका प्रस्तुत समयसार ग्रंथ में निरूपित शुद्ध आत्म तत्त्व के निरुपणा के साथ कोई विसंवाद नहीं है। किंतु उसकी मुख्यता नहीं ।। समयसार में प्राणभूत यथार्थ मोक्षमार्ग की ही विशद प्रतिपादना है यह दृष्टि में आना आवश्यक है । यदा कदा शिष्य को परस्पर विरोध की संभावना का विकल्प आता है वहां व्यवहार पक्ष को पूर्वपक्ष के रूप में रक्खा है,
और वह निश्चय मोक्षमार्ग में उपादेय नहीं यह स्पष्ट किया है । तथा उसकी अपनी मर्यादा भी बतलाई है । परंतु आत्मा के एकत्व की अनुभूति की परमसमाधि की दशा यह इन सारे विकल्पों के अतीत है यह सुस्पष्ट हो गया है।
इस एकत्व-विभक्त आत्मा को लक्ष्य बनाएँ बिना मोक्ष की कथा तो दूर परंतु मोक्षमार्ग की प्रथम श्रेणिरूप सम्यग्दर्शन भी अशक्य है। इसीलिए गाथा १३ में शुद्ध' नय के द्वारा जाने गये जीव-अजीव आस्रव-बंध-पुण्य-पाप-संवर-निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व ही सम्यग्दर्शन है ऐसा कहा है। उसी में शुद्ध नय द्वारा प्रतिवर्णित शुद्ध आत्म तत्त्व की प्रतिपत्ति-प्रतीति ज्ञानी को होती है वही सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार स्पष्ट स्पष्ट रूप से प्रतिज्ञा को रूप में आचार्यों का कथन प्रस्तुत है।
१. भयत्थेणाभिगदा जीवा जीवा य पुण्णपावाय ।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य समत्तं ।। १३॥
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