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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ भगवान् सिद्धि के साधन कैसे हो सकेंगे ? स्वयं अपना आत्मा ही साधनरूप हो सकता है। यह आत्मवस्तु गुणपर्यायरूप है और वर्तमान में कर्म संयोग में अशुद्धता है, पर्याय में शुद्धता अविद्यमान है, इसलिए मोक्षके साधन के रूपसे वहां शुद्धपर्याय का आश्रय असंभव है। पर्याय मे जो अशुद्धता विद्यमान है उसका अवलम्ब भी अशुद्धता का ही जनक होगा। शुद्ध साध्य का जनक नहीं हो सकता। साधन ऐसा हो जो स्वयं आत्मस्वरूप हो-अपने में विद्यमान हो और स्वयं शुद्ध हो । ज्ञानी अंतर्मुख दृष्टीसे आत्मस्वभाव की ओर जब दृष्टि स्थिर करता है उस समय उसे वर्तमान संयोगी अशुद्ध पर्याय में भी सहज, स्वभावसिद्ध, शुद्ध ध्रुव ज्ञायक स्वभाव दृष्टिगोचर होता है । उसीका साधनस्वरूप से स्वीकार करना, अवलंब करना उसी का श्रद्धाज्ञान और चारित्ररूप जीवन के लिए आश्रय लेना यही एकमात्र मुक्ति का यथार्थ मार्ग है। इस सूक्ष्म विषय का क्रमबद्ध रूपसे सांगोपांग वर्णन आचार्य कुंदकुंद ने इस ग्रंथ में किया है। जो विषयका समर्थ आविष्कारक सिद्ध हुआ है।
शुद्धभावग्राही निश्चयदृष्टी (निश्चयनय) इस लोकोत्तर ग्रंथ में लौकिक व्यवहारदृष्टि साध्यसिद्धि के लिए गौण एवं अप्रयोजनभूत होने से उसका अधिकार नहीं और एकमात्र ध्रुवज्ञायक स्वभाव को ग्रहण करने में समर्थ तथा प्रयोजनभूत होने से निश्चयनय ही मुख्य है । यत्रतत्र इसी शुद्धनय दृष्टि का, परमभावग्राही निश्चयनय का अधिकार है, क्योंकि
'भूयत्थमस्सिदो खलु सम्मा इठ्ठी हवई जीवो।'
भूतार्थका आश्रय करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि होता है । इस शुद्धनय का स्वरूप आचार्य कुंदकुंद ने स्वयं १४ वे गाथा में कहा है
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुटुं अणण्णयं नियदं।
अविसेस मसंजुतं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥१४॥ जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य (एकरूप), नियत, अविशेष, असंयुक्त रूपसे देखता है उसे शुद्धनय जानो। अनादि बन्धपर्याय की अपेक्षा से अनादि काल से कर्मों से बद्धस्पृष्ट, नरनारकादि नानाक्षणिक पर्यायों में अनेकरूप गुणों की तरतमता के कारण अनियत, अपने अनंत गुणों के कारण विशेषरूप, और कर्मनिमित्तक रागादि विकार भावों से संयुक्त दृष्टिगोचर होता है। इन पांचही प्रकारों में आत्मा की एकता
और शुद्धता का अपलाप होता है । दो अत्यंत भिन्न वस्तुओं में सम्बन्ध का परिज्ञान करानेवाला व्यवहार -- या व्यवहारनय वस्तु तत्त्व को स्पर्श करने में अत्यंत असमर्थ होने से मोक्षमार्ग में श्रेयोमार्ग में उसे अप्रयोजनभूत ही कहा और वह ठीक ही है। आगम ग्रंथों में संयोगमात्र का या निमित्तमात्र का यथास्थान परिज्ञान कराने मात्रके उद्देश से उसका यत्रतत्र निर्देश किया गया है। उसकी प्रधानता से ग्रंथोंकी निर्मिती हुई है किन्तु उपर्युक्त विविधता यह व्यवहारनय पर्यायार्थिक नय या भेदप्रधान द्रव्यार्थिक नय का (द्रव्यार्थिकरूप व्यवहार नय) विषय रहा है, गुणभेद और पर्यायभेदपूर्वक वस्तु तत्त्वका विश्लेषण करके उसका ज्ञान मात्र कराने के लिये इन नयों की प्रवृति होती है इसलिए शुद्धनय की दृष्टि में वे सब व्यवहार ही है और ये शुद्ध आत्मा की
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