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चार अनुयोग आत्मानुभवनादि कार्यों में प्रवर्ते उसकाल उसे शुद्धोपयोगी कहते हैं । यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मरागादिक हैं, तथापि उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की, अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोड़ता है इस अपेक्षा उसे शुद्धोपयोगी कहा है । इसी प्रकार स्व-पर श्रद्धानादिक होनेपर सम्यक्त्वादिक कहे, वह बुद्धिगोचर अपेक्षासे निरूपण है; सूक्ष्म भावोंकी अपेक्षा गुणस्थानादिमें सम्यक्त्वादिका निरूपण करणानुयोगमें पाया जाता है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना । इसलिये द्रव्यानुयोगके कथनकी विधि करणानुयोगसे मिलाना चाहे तो कहीं तो मिलती है, कहीं नहीं मिलती । जिस प्रकार यथाख्यातचारित्र होनेपर तो दोनों अपेक्षा शुद्धोपयोग है, परन्तु निचली दशामें द्रव्यानुयोग अपेक्षासे तो कदाचित् शुद्धोपयोग होता है, परन्तु करणानुयोग अपेक्षासे सदाकाल कषाय अंशके सद्भावसे शुद्धोपयोग नहीं है । इसी प्रकार अन्य कथन जान लेना ।
तथा द्रव्यानुयोगमें परमतमें कहे हुए तत्त्वादिकको असत्य बतलानेके अर्थ उनका निषेध करते हैं; वहाँ द्वेषबुद्धि नहीं जानना । उनको असत्य बतलाकर सत्य श्रद्धान करानेका प्रयोजन जानना । अब, इन अनुयोगोंमें कैसी पद्धतिकी मुख्यता पायी जाती है सो कहते हैं:
___ अनुयोगोंमें पद्धति विशेष प्रथमानुयोगमें तो अलंकार शास्त्रकी वा काव्यादि शास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है, क्योंकि अलंकारादिसे मन रंजायमान होता है; सीधी बात कहनेसे ऐसा उपयोग नहीं लगता जैसा अलंकारादि युक्तिसहित कथनसे उपयोग लगता है। तथा परोक्ष बातको कुछ अधिकतापूर्वक निरूपण किया जाये तो उसका स्वरूप भलीभाँति भासित होता है । तथा करणानुयोगमें गणित आदि शास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है, क्योंकि वहाँ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके प्रमाणादिकका निरूपण करते हैं; सो गणित ग्रन्थोंकी आम्नायसे उसका सुगम जानपना होता है। तथा चरणानुयोगमें सुभाषित नीतिशास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है, क्योंकि वहाँ आचरण कराना है, इसलिये लोकप्रवृत्तिके अनुसार नीतिमार्ग बतलाने पर वह आचरण करता है। तथा द्रव्यानुयोगमें न्यायशास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है, क्योंकि वहाँ निर्णय करनेका प्रयोजन है और न्यायशास्त्रोंमें निर्णय करनेका मार्ग दिखाया है । इस प्रकार इन अनुयोगोंमें मुख्य पद्धति है । और भी अनेक पद्धतिसहित व्याख्यान इनमें पाये जाते हैं।
तथा जैनमतमें बहुत शास्त्र तो इन चारों अनुयोगोंमें गर्भित हैं। तथा व्याकरण, न्याय, छन्द, कोषादिक शास्त्र व वैद्यक, ज्योतिष, मन्त्रादि शास्त्र भी जिनमतमें पाये जाते हैं। उनका क्या प्रयोजन है सो सुनो
व्याकरण, न्यायादिकका अभ्यास होनेपर अनुयोगरूप शास्त्रोंका अभ्यास हो सकता है; इसलिये व्याकरणादि शास्त्र कहे हैं।
यहाँ इतना है कि-ये भी जैनशास्त्र हैं ऐसा जानकर इनके अभ्यासमें बहुत नहीं लगना । यदि बहुत बुद्धिसे इनका सहज जानना हो और इनको जाननेसे अपने रागादिक विकार बढ़ते न जाने, तो इनका भी जानना होओ; अनुयोगशास्त्रवत् ये शास्त्र बहुत कार्यकारी नहीं हैं; इसलिये इनके अभ्यासका विशेष उद्यम करना योग्य नहीं है ।
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