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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ लेना कि इनको छोड़कर पापमें लगना; क्योंकि उस उपदेशका प्रयोजन अशुभमें लगानेका नहीं है । शुद्धोपयोगमें लगानको शुभोपयोगका निषेध करते हैं ।
यहाँ कोई कहे कि-अध्यात्मशास्त्रमें पुण्य-पाप समान कहे हैं, इसलिये शुद्धोपयोग हो तो भला ही है, न हो तो पुण्यमें लगो या पापमें लगो ?
उत्तर:-जैसे शूद्र जातिकी अपेक्षा जाट, चांडाल समान कहे हैं, परन्तु चांडाल से जाट कुछ उत्तम है; वह अस्पृश्य है यह स्पृश्य है; उसी प्रकार बन्ध कारणकी अपेक्षा पुण्य-पाप समान हैं परन्तु पापसे पुण्य कुछ भला है; वह तीवकषायरूप है यह मन्दकषायरूप है; इसलिये पुण्य छोड़कर पापमें लगना युक्त नहीं है-ऐसा जानना ।
तथा जो जीव जिनबिम्ब भक्ति आदि कार्योंमें ही मग्न हैं उनको आत्मश्रद्धानादि करानेको “ देहमें देव है, मन्दिरमें नहीं"- इत्यादि उपदेश देते हैं। वहाँ ऐसा नहीं जान लेना कि-भक्ति छोड़कर भोजनादिकसे अपनेको सुखी करना; क्योंकि उस उपदेशका प्रयोजन ऐसा नहीं है। इसी प्रकार अन्य व्यवहारका निषेध वहाँ किया हो उसे जानकर प्रमादी नहीं होना; ऐसा जानना कि--जो केवल व्यवहार साधनमें ही मग्न हैं उनको निश्चयरुचि करानेके अर्थ व्यवहारको हीन बतलाया है। तथा उन्हीं शास्त्रोंमें सम्यग्दृष्टिके विषय-भोगादिकको बंधका कारण नहीं कहा, निर्जराका कारण कहा, परन्तु यहाँ भोगोंका उपादेयपना नहीं जान लेना । वहाँ सम्यग्दृष्टिकी महिमा बतलानेको जो तीव्रबंधके कारण भोगादिक प्रसिद्ध थे उन भोगादिकके होनेपर भी श्रद्धानशक्तिके बलसे मन्द बन्ध होने लगा उसे गिना नहीं और उसी बलसे निर्जरा विशेष होने लगी, इसलिये उपचारसे भोगोंको भी बन्धका कारण नहीं कहा, निर्जराका कारण कहा । विचार करनेपर भोग निर्जराके कारण हों तो उन्हें छोड़कर सम्यग्दृष्टि मुनिपदका ग्रहण किसलिये करे ? यहाँ इस कथनका इतना ही प्रयोजन है कि देखो, सम्यक्त्वकी महिमा ! जिसके बलसे भोग भी अपने गुणको नहीं कर सकते हैं। इसी प्रकार अन्य भी कथन हों तो उनका यथार्थपना जान लेना।
____ तथा द्रव्यानुयोगमें भी चरणानुयोगवत् ग्रहण-त्याग करानेका प्रयोजन है; इसलिये छद्मस्थके बुद्धिगोचर परिणमोंकी अपेक्षा ही वहाँ कथन करते हैं। इतना विशेष है कि-चरणानुयोगमें तो बाह्यक्रियाकी मुख्यतासे वर्णन करते हैं, द्रव्यानुयोगमें आत्मपरिणामोंकी मुख्यतासे निरूपण करते हैं, परन्तु करणानुयोगवत् सूक्ष्मवर्णन नहीं करते । उसके उदाहरण देते हैं:
उपयोगके शुभ, अशुभ, शुद्ध-ऐसे तीन भेद कहे हैं, वहाँ धर्मानुरागरूप परिणाम वह शुभोपयोग, पापानुरागरूप व द्वेषरूप परिणाम वह अशुभोपयोग और राग-द्वेषरहित परिणाम वह शुद्धोपयोग-ऐसा कहा है; सो इस छद्मस्थके बुद्धिगोचर परिणामोंकी अपेक्षा यह कथन है; करणानुयोगमें कषायशक्तिकी अपेक्षा गुणस्थानादिमें संक्लेशविशुद्ध परिणामोंकी अपेक्षा निरूपण किया है वह विवक्षा यहाँ नहीं है। करणानुयोगमें तो रागादि रहित शुद्धोपयोग यथाख्यातचारित्र होनेपर होता है, वह मोहके नाशसे स्वयमेव होगा; निचली अवस्थावाला शुद्धोपयोगका साधन कैसे करे ? तथा द्रव्यानुयोगमें शुद्धोपयोग करनेका ही मुख्य उपदेश है; इसलिये वहाँ छमस्थ जिस कालमें बुद्धिगोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्यरूप परिणामोंको छोड़कर
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