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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ तथा श्रीजयधवला की एक तथा महाधवला की (महाबंध) ताडपत्र की एक प्रति थी। उपरोक्त तीनों ग्रंथ ताडपत्रोंपर लिखित हैं। श्री आ. पुष्पदंत भूतबलि, गणधर यतिवृषभ आदि आचार्यों के मूलसूत्र तथा चूर्णिसूत्र तथा उनके ऊपर आ. वीरसेन तथा जिनसेन स्वामी की धवलादि टीका पुरानी कन्नड लिपि में लिखी हुई है। (इसका विस्तृत वर्णन परिशिष्ट टिप्पणी में देखो।) भाषा प्राकृत तथा संस्कृत है । वे जीर्णशीर्ण होती जा रही है। उनमें से महाबंध का करीब चारपांच हजार श्लोकप्रमाण हिस्सा कीटकों द्वारा नष्ट हुआ है । अवशिष्ट भाग भी कृमिकीटकों का भक्ष्य बनेगा तो सिद्धान्तग्रंथ नष्टप्राय हो जायेंगे ।
प. पू. १०८ आचार्यश्री वि. सं. २००० के चौमासे में कुंथलगिरी क्षेत्रपर विराजमान थे। वहांपर उन्हें मुडबिद्री में विराजमान धवलादि सिद्धान्तग्रंथों की जराजीर्ण स्थिति की जो जानकारी मिली उससे वे अत्यन्त चिंतित हुए। उस क्षेत्रपर (१) पू. १०५ भट्टारक जिनसेन, कोल्हापुर, मठाधीश, (२) श्री. ध. दानवीर संघपति शेठ गेंदनमलजी, मुंबई, (४) श्री. गुरुभक्त शेठ चंदुलाल ज्योतिचंद सराफ, बारामती और (४) श्री. दानवीर रामचंद्र धनजी दावडा, नातेपुते, तथा वहां उपस्थित धर्मानुरागी श्रावकों के सन्मुख पूज्यवर आचार्य महाराज ने आगमरक्षा की अपनी अंतरंग व्यथा सुनवाई। महाराजश्री के उपदेश तथा आदेश से प्रेरित होकर उस कार्य की पूर्ति करने का संकल्प किया। तथापि ऐसे महान पुण्यकार्य में सब दिगंबर जैन समाज सहभागी हो इस मंगल भावना से महाराजश्री के उपदेश और आदेश से उसी समय लगभग एक लाख रुपये के दान की स्वीकृति प्राप्त हुई। तथा कार्य की रूपरेषा निश्चित करने के हेतु एक अस्थायी कमेटी नियुक्त की गई ।
उपरोक्त सिद्धान्त ग्रंथ ताम्रपत्रोंपर खुदवाकर उनकी सुरक्षा का स्थायी प्रबंध हो ऐसी आचार्य महाराज की आंतरिक इच्छा थी। प्रथम हस्तकारागिरों से ताम्रपत्रोंपर अक्षर खुदवाने का प्रयास किया गया। परंतु इसमें (१) अशुद्धता का अधिकतर संभव, (२) अति कष्ट, (३) खर्च की बहुलता तथा (४) कार्यपूर्ति में अतिविलंब आदि त्रुटियां अनुभव में आईं । श्री. वालचंद देवचंद शहा बंबईवालों ने इस कार्य की पूर्ति रासायनिक प्रक्रिया से होनी चाहिए, इससे यह कार्य अच्छी तरह से और शीघ्रता से पूरा हो सकेगा, ऐसा सुझाव सामने रखा जो की तत्काल सर्वसंमत हुआ तथा श्री. पू. समन्तभद्र महाराज के सूचनानुसार शेठ वालचंदजी को मंत्रीपद देने का आदेश महाराजश्री ने देकर यह ताम्रपट बनाने का कार्यभार उन्हीं को सौंपा गया ।
वि. सं. २००१ फाल्गुन वदी २ के दिन जब पू. आचार्य महाराज बारामती के गुरुभक्त शेठ चंदुलालजी सराफ के बगिचे में विराजमान थे उसी समय समाज के अन्य श्रीमान मान्यवर श्रावक तथा पं. खूबचंदजी, पं. मक्खनलालजी आदि विद्वज्जनों की सभा में १. श्रीधवल, श्रीजयधवल, श्रीमहाधवल आदि सिद्धान्त ग्रंथ संशोधनपूर्वक देवनागरी लिपि में ताम्रपत्र पर अंकित करके उनकी स्थायी रक्षा का प्रबंध करना तथा २. अन्य आचार्यों के ग्रंथों का जीर्णोद्धार के साथ उनका स्वाध्याय के लिए निःशुल्क वितरण करना इन दो प्रधान उद्देशों से "श्री १०८ चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था" की स्थापना की गई। उपरिनिर्दिष्ट कार्य के लिए
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