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स्मृति-मंजूषा
१०३ ऊंचा वेष धारण करने मात्र से कार्यसिद्धि कदापि नहीं होगी। इस संबंध में प्रातः स्मरणीय आचार्य श्री शांतिसागर महाराजजी की कार्यपद्धति सब को सम्यक् प्रकाश प्रदान करती है । आचार्य महाराज व्यक्ति की शक्ति, पात्रता आदि को ध्यान में रखकर व्रत देते थे। मैंने अनेक बार देखा कि कई व्यक्ति ऊंचा व्रत मांगते थे किन्तु महाराज उस व्यक्ति की अल्प शक्ति देख उसे उसकी इच्छानुसार व्रत नहीं देते थे। व्रत देते समय महाराज बडी दूरदर्शिता से काम देते थे । इस संबंध में कुछ उदाहरण मार्गदर्शन करते है ।
(१) बेंगलोर हाईकोर्ट न्यायाधीश श्री. टी. के. तुक्कोळ जो इस समय बंगलोर विश्वविद्यालय के उपकुलपति हैं, आचार्य महाराज के विषय में अपना अनुभव इस प्रकार दिया है 'वे व्रत लेने के लिए कभी भी लोगों पर दबाब नहीं डालते थे, यदि कोई व्यक्ति उनके पास जाकर व्रत देने के लिए प्रार्थना करता था तो वे उसे सावधान करने के साथ उस व्रत पालन करने की क्षमता की जाँच भी करते थे।' श्री तुकोळ ने लिखा है-"एक बार मेरी पत्नी ने महाराज से रात्रि भोजन न करने के व्रतदान हेतु प्रार्थना की। उस समय महाराज ने उसे सचेत करते हुआ कहा कि 'मैं एक बड़ा व्यक्ति अर्थात् उच्चाधिकारी बनूंगा और उस परिस्थिति में उसके लिए व्रत का पालन करना सम्भव न होगा। 'मेरी पत्नी ने विनयपूर्वक कहा कि" वह पूर्णतया प्रतिज्ञा का पालन करेगी, भले ही मैं कैसे ही पद पर पहुंच जाऊं।" इसके पश्चात् महाराज ने मेरी पत्नी को व्रत दिया तथा उसने उसका पूर्णतया पालन किया।
(२) एकबार आचार्य महाराज के पास एक तरुण ने आकर जीवनभर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत के लिए प्रार्थना की। उस परिचित व्यक्ति के आग्रह पर मैंने कहा “ महाराज, यह सज्जन व्यक्ति है, इस व्यक्ति को व्रत देकर कृतार्थ किजीए"। वह व्यक्ति मन वचन काय से ब्रह्मचर्य मांग रहा था । महाराज ने उस व्यक्ति को ध्यान से देखा, और केवल काय से ब्रह्मचर्य पालन करने का व्रत दिया। मैने कहा ' महाराज वह व्यक्ति जब उच्च व्रत मांगता था तब आप ने उसे वह व्रत क्यों नही दिया ?' महाराज ने कहा "उस जीव का भविष्य सोचकर हम व्रत देते हैं, कारण यदि उस ने व्रत का पूर्णतया पालन नहीं किया, तो वह दुर्गति में जाकर दुःख भोगेगा"।
(३) एक व्यक्ति महाराज के पास मुनिदीक्षा के लिए पहुंचे थे। महाराज ने उसकी अटपरी वृत्ति को देखकर शीघ्रही अपने पास से अन्यत्र जाने को कहा । आगे उस व्यक्ति ने बिना गुरु के मुनिमुद्रा धारण कर ली और आज वह आगम के विरुद्ध प्रवृत्ति करता हुआ धर्म का उपहास कर रहा है। उनका नाम लेना उचित नहीं लगता । वह आचार्य वाणी का तिरस्कार कर बडे बडे आचार्यों की भूल निकाल रहे हैं। स्वयं आचार्य महाराज का जीवन त्याग के विषय में मार्गदर्शक है । पहले बे ब्रह्मचारी बने, फिर क्षुल्लक हुए, पश्चात् ऐलक बने । इसके बाद वे मुनि बने थे। अपने ज्येष्ठ बंधु वर्धमानसागर महाराज को ब्रह्मचर्य व्रत देने के उपरांत उन्होंने उन्हें अनेक बार प्रार्थना करने पर बहुत सोचकर क्षुल्लक दीक्षा दी। अंत में जब वर्धमान महाराज ने बारबार विनय की, कि मनुष्य जन्म की श्रेष्ठ विभूति मुनि पदवी प्रदान कर मेरा जन्म कृतार्थ कीजिए तब बडी कठिनता से आचार्य श्री ने बारामती में उन्हें मुनिदीक्षा दी थी।
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