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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ लिए ले गये। वहाँ उनकी बहस से मुकदमा सुलझ गया और जैन मन्दिरों में हरिजन न जायें यह तय हो गया। तब बारामती (पूना ) में आचार्य श्री शान्तिसागरजी से कहा गया कि अन्नाहार ग्रहण करिये, किन्तु आपने अन्न नहीं लिया और कहा कि शायद अपील में हार हो जाये, तब तक अन्न नहीं लेना होगा। यह ज्ञात कर हमने सुबोधकुमार अपने (पौत्र) को पटना भेजा और बैरिस्टर दास से अपील को देखने को कहा। बैरिस्टरजी ने भलिभाँति अपील देखी और कहा कि इसमें कोई दम नहीं है, दूसरे पक्ष से अपील नहीं होगी और केस को उल्टा भी न जा सकेगा। जब यह निश्चय हो गया तब हमने बारामती (पूना ) को तार दिया कि अपील खारिज ही समझें, मुकदमा नहीं हो सकता है। अतः सबों ने आचार्य श्री को पी. आर. दास बैरिस्टर की सम्मति सुनाई। हमारा तार भी सुनाया तभी अन्नाहार हुआ, धन्य भाग्य थे जो कि सफलता मिली।
व्रतों का दान परमकृपा हुई . श्री १०८ आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शान्तिसागरजी से सन १९३४ मित्ती कार्तिक सुदी पूर्णिमा को 'आयठग्राम ' ( उदयपूर ) में हम को सप्तम प्रतिमा के व्रत लेने का अवसर प्राप्त हुआ था । नत मस्तक होकर आचार्य श्री के चरणों में शत शत नमन ।
त्याग और त्यागियों के विषय में आचार्य श्री का मार्गदर्शन
धर्मदिवाकर पं. सुमेरचंद दिवाकर B.A.,LL.B. सिवनी (म. प्र.)
जैन धर्म में त्याग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मोक्षप्राप्ति के लिए त्याग धर्म का आश्रय अनिवार्य है। इस कारण समाज में विद्यमान परमपूज्य मुनिराज प्रत्येक व्यक्ति को उच्च त्याग का उपदेश दिया करते हैं। मैंने स्वयं अनेक मुनिराजों को अनेक मुनियों को सर्व साधारण के लिए आग्रह पूर्वक मुनि बनने के लिए उपदेश देते देखा है। जो व्यक्ति अष्ट मूलगुण धारण करने तक की पात्रताशून्य है उसे भी महाव्रती बनने का उपदेश दिया जाते देख आश्चर्य हुआ करता है। ऐसा उपदेश देते समय वे यह सोचने की कृपा नहीं करते कि यदि श्रावक ने शक्ति के बाहर अधिक आग्रहवश दिगंबर मुनि की दीक्षा ले ली और उस महान् पदवी प्रतिष्ठा के अनुरूप आचरण नहीं किया तो उस जीव की क्या गति होगी और जैनधर्म की कितनी क्षति होगी? मैंने अनेक मुनिदिक्षा का आग्रह करनेवाले साधुओं से तथा उनके आचार्यों से भी प्रार्थना की श्रावक की योग्यता को देखकर उसे व्रत दिया जाना चाहिए । आचार्य पद्मनन्दी ने अपनी पंचविंशतिका में “गृहस्था मोक्षहेतवः ।" गृहस्थ भी मोक्ष के हेतु हैं' ऐसा कहा है । समन्तभद्र स्वामी ने मोहविहीन गृहस्थ का पद ऊंचा बताया है। उन्होंने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है। “ मोही मुनि की अपेक्षा मोहरहित गृहस्थपद अच्छा है। ऐसा गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित है।"
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