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श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ
२. भावसम्यक्त्व — उपरोक्त विशुद्ध पुद्गल वर्गणा के निमित्त से होने वाली तत्त्वश्रद्धा भावसम्यक्त्व कहलाती है ।
(ब) निश्चयसम्यक्त्व और व्यवहारसम्यक्त्व"
१. निश्चयसम्यक्त्व-राग-द्वेष और मोह का अत्यल्प हो जाना, पर-पदार्थों से भेदज्ञान एवं स्व-स्वरूप में रमण, देह में रहते हुए देहाध्यास का छूट जाना, यह निश्चयसम्यक्त्व के लक्षण हैं। मेरा शुद्ध स्वरूप अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्त आनन्दमय है पर भाव या आसक्ति ही मेरे बन्धन का कारण है, और स्व-स्वभाव में रमण करना यही मोक्ष का हेतु है । मैं स्वयं ही अपना आदर्श हूँ, देव गुरु और धर्म यह मेरा आत्मा ही है। ऐसी दृढ़ श्रद्धा का होना ही निश्चयसम्यक्त्व है । दूसरे शब्दों में आत्मकेन्द्रित होना यही निश्चयसम्यक्त्व है।
२. व्यवहारसम्यक्त्व — वीतराग में देवबुद्धि (आदर्श बुद्धि), पाँच महाव्रतों के पालन करने वाले मुनियों में गुरुबुद्धि और जिनप्रणीत धर्म में सिद्धान्त बुद्धि रखना, यह व्यवहारसम्पनत्व है । (स) निसर्गजसम्यक्त्व और अधिगमजसम्यक्त्व '
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चिन्तन के विविध बिन्दु ५३६
१. निसर्गजसम्यक्त्व - जिस प्रकार नदी के प्रवाह में पड़ा हुआ पत्थर अप्रयास ही स्वाभा विक रूप से गोल हो जाता है उसी प्रकार संसार में भटकते हुए प्राणी के अनायास ही जब कर्मावरण के अल्प होने पर यथार्थता का बोध हो जाता है तो ऐसा सत्यबोध निसर्गज ( प्राकृतिक ) होता है। बिना किसी गुरु आदि के उपदेश के स्वाभाविक रूप में स्वतः उत्पन्न होने वाला ऐसा सत्यबोध निसर्गजसम्यक्त्व कहलाता है।
२. अधिगमजसम्यक्त्व - गुरु आदि के उपदेशरूप निमित्त से होने वाला सत्यबोध या सम्यक्त्व अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता है।
इस प्रकार जैन दार्शनिक न तो वेदान्त और मीमांसक दर्शन के अनुसार सत्य पथ के नित्य प्रकटन को स्वीकार करते हैं और न न्याय-वैशेषिक और योगदर्शन के समान यह मानते हैं कि सत्य पथ का प्रकटन ईश्वर के द्वारा होता है वरन् वे तो यह मानते हैं कि जीवात्मा में सत्यबोध को प्राप्त करने की स्वाभाविक शक्ति है और वह बिना किसी दूसरे की सहायता के सत्य पथ का बोध प्राप्त कर सकता है यद्यपि किन्हीं विशिष्ट आत्माओं ( सर्वज्ञ, तीर्थंकर) द्वारा सत्य पथ का प्रकटन एवं उपदेश भी किया जाता है।"
सम्यक्त्व के पाँच अंग
सम्यक्त्व यथार्थता है, सत्य है; इस सत्य की साधना के लिए जैन विचारकों ने ५ अंगों का विधान किया है । जब तक साधक इन्हें नहीं अपना लेता है वह यथार्थता या सत्य की आराधना एवं उपलब्धि में समर्थ नहीं हो पाता । सम्यक्त्व के निम्न पाँच अंग हैं :
१. सम - सम्यक्त्व का पहला लक्षण है सम । प्राकृत भाषा का यह 'सम' शब्द संस्कृत भाषा में तीन रूप लेता है- १. सम, २. शम, ३. श्रम । इन तीनों शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं ।
५५ प्रवचनसारोद्वार (टीका) १४९१४२
५६ स्थानांग सूत्र २।१।७०
५७ स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २६८
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