________________
: ५३७ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विवेश्री जैन दिवाकर-स्मृति-न्य
१. औपशमिक सम्यक्त्व उपरोक्त (क्रियमाण) कर्मप्रकृतियों के उपशमित (दबाई हुई) हो जाने से जिस सम्यक्त्व गुण का प्रगटन होता है वह औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। औपशमिक सम्यक्त्व में स्थायित्व का अभाव होता है । शास्त्रीय विवेचना के अनुसार यह एक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट) से अधिक नहीं टिक पाता है। उपशमित कर्मप्रकृतियाँ (वासनाएँ) पुन: जाग्रत होकर इसे विनष्ट कर देती हैं।
२. क्षायिक सम्यक्त्व उपरोक्त सातों कर्मप्रकृतियों के क्षय हो जाने पर जिस सम्यक्त्व रूप यथार्थबोध का प्रगटन होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। यह यथार्थबोध स्थायी होता है और एक बार प्रकट होने पर कभी भी विनष्ट नहीं होता है। शास्त्रीय भाषा में यह सादि एवं अनन्त होता है।
३. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मिथ्यात्वजनक उदयगत (क्रियमाण) कर्मप्रकृतियों के क्षय हो जाने पर और अनुदित (सत्तावान या सचित) कर्मप्रकृतियों के उपशम हो जाने पर जिस सम्यक्त्व का प्रगटन होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । यद्यपि सामान्य दृष्टि से यह अस्थायी ही है फिर भी एक लम्बी समयावधि (छयासठ सागरोपम से कुछ अधिक) तक अवस्थित रह सकता है।
औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका में सम्यक्त्व के रस का पान करने के पश्चात जब साधक पुनः मिथ्यात्व की ओर लौटता है तो लौटने की इस क्षणिक समयावधि में वान्त सम्यक्त्व का किंचित् संस्कार अवशिष्ट रहता है । जैसे वमन करते समय वमित पदार्थों का कुछ स्वाद आता है वैसे ही सम्यक्त्व को वान्त करते समय सम्यक्त्व का भी कुछ आस्वाद रहता है । जीव की ऐसी स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व कहलाती है।।
साथ ही जब जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका से क्षायिक सम्यक्त्व की प्रशस्त भूमिका पर आगे बढ़ता है और इस विकास क्रम में जब वह सम्यक्त्वमोहनीय कर्मप्रकृति के कर्मदलिकों का अनुभव कर रहा होता है तो उसके सम्यक्त्व की यह अवस्था 'वेदक सम्यक्त्व' कहलाती है। वेदक सम्यक्त्व के अनन्तर जीव क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है।
वस्तुतः सास्वादन सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व सम्यक्त्व को मध्यान्तर अवस्थायें हैं । पहली सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर गिरते समय और दूसरी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर बढ़ते समय होती है।
सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण सम्यक्त्व का विश्लेषण अनेक अपेक्षाओं से किया गया है ताकि उसके विविध पहलओं पर समुचित प्रकाश डाला जा सके । सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण चार प्रकार से किया गया है
(अ) द्रव्यसम्यक्त्व और भावसम्यक्त्व १. द्रव्यसम्यक्त्व-विशुद्ध रूप में परिणत किये हुए मिथ्यात्व के कर्मपरमाणु द्रव्यसम्यक्त्व कहलाते हैं।
५४ प्रवचनसारोद्धार (टीका) १४६।९४२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org