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: ५३३ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विश्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।।
से मुक्ति सम्भव नहीं और कर्मावरण से जकड़े हुए प्राणी का निर्वाण नहीं होता। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि सम्यक्दष्टि पापाचरण नहीं करता। जैन विचारणा के अनुसार आचरण का सत् अथवा असत् होना कर्ता के दृष्टिकोण (दर्शन) पर निर्भर है। सम्यक्दृष्टित्व से परिनिष्पन्न होने वाला आचरण सदैव सत् होगा और मिथ्यादृष्टि से परिनिष्पन्न होने वाला आचरण सदैव असत् होगा। इसी आधार पर सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति प्रबुद्ध है, भाग्यवान है और पराक्रमी भी है, लेकिन यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका समस्त दान, तप आदि पुरुषार्थ फलयुक्त होने के कारण अशुद्ध ही होगा । वह उसे मुक्ति की ओर नहीं ले जाकर बन्धन की ओर ही ले जावेगा। क्योंकि असम्यक्दर्शी होने के कारण वह आसक्त (सराग) दृष्टि वाला होगा और आसक्त या फलाशापूर्ण विचार से परिनिष्पन्न होने के कारण उसके सभी कार्य भी फलयुक्त होंगे और फलयुक्त होने से उसके बन्धन का कारण होंगे । अतः असम्यक्दर्शी व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध ही कहा जावेगा क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा। लेकिन इसके विपरीत सम्यक्दृष्टि या वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित होने से शुद्ध होंगे। इस प्रकार जैन विचारणा यह बताती है कि सम्यकदर्शन के अभाव से विचार-प्रवाह सराग, सकाम या फलाशा से युक्त होता है और यही कर्मों के प्रति रही हुई फलाशा बन्धन का कारण होने से पुरुषार्थ को अशुद्ध बना देती है जबकि सम्यकदर्शन की उपस्थिति से विचार-प्रवाह वीतरागता, निष्कामता और अनासक्ति की ओर बढ़ता है, फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है अतः सम्यक्दृष्टि से युक्त सारा पुरुषार्थ परिशुद्ध होता है । २
बौद्ध-दर्शन में सम्यकदर्शन का स्थान
बौद्ध-दर्शन में सम्यकदर्शन का क्या स्थान है, यह बुद्ध के निम्न कथन से स्पष्ट हो जाता है। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि
भिक्षुओ ! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे अनुत्पन्न अकुशल-धर्म उत्पन्न होते हों तथा उत्पन्न अकुशल-धर्मों में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओ ! मिथ्या-दृष्टि ।
भिक्षुओ ! मिथ्यादृष्टि वाले में अनुत्पन्न अकुशल-धर्म पैदा हो जाते हैं, उत्पन्न अकुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं।
भिक्षुओ ! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हों तथा उत्पन्न कुशल-धर्मों में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओ ! सम्यक्-दृष्टि ।
भिक्षुओ! सम्यक्-दृष्टि वाले में अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हो जाते हैं, उत्पन्न कुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार बुद्ध सम्यक् दृष्टि को नैतिक जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में मिथ्यादष्टिकोण इधर (संसार) का किनारा है और सम्यक्-दृष्टिकोण उधर (निर्वाण) का किनारा है।" बुद्ध के ये वचन यह स्पष्ट कर देते हैं कि बौद्ध-दर्शन में सम्यक्-दृष्टि का कितना महत्वपूर्ण स्थान है।
४२ सूत्रकृतांग शा२२-२३
४० उत्तरा० २८१३० ४३ अंगुत्तरनिकाय १११७
४१ आचारांग २३२ ४४ अंगुत्तरनिकाय १११२
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