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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
चिन्तन के विविध बिन्दु : ५३२ :
लेकिन प्रत्येक सामान्य साधक यथार्थ दृष्टिकोण को इस प्रकार प्राप्त नहीं करता है और न उसके लिए यह सम्भव ही है; सत्य की स्वानुभूति का मार्ग कठिन है। सत्य को स्वयं जानने की विधि की अपेक्षा दूसरा सहज मार्ग है और वह यह कि जिन्होंने स्वानुभूति से सत्य को जानकर उसका जो भी स्वरूप बताया है, उसको मानकर चलना । इसे ही जैनशास्त्रकारों ने तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है अर्थात् यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त वीतराग ने अपने यथार्थ दृष्टिकोण में सत्ता का जो स्वरूप प्रकट किया है, उसे स्वीकार कर लेना । मान लीजिए कोई व्यक्ति पित्त विकार से पीड़ित है, अब ऐसी स्थिति में वह किसी श्वेत वस्तु के यथार्थ ज्ञान से वंचित होगा। उसे वस्तु के यथार्थ स्वरू को प्राप्त करने के दो मार्ग हो सकते हैं। पहला मार्ग यह है कि उसकी बीमारी में स्वाभाविक रूप से जब कुछ कमी हो जावे और वह अपनी पूर्व और पश्चात् की अनुभूति में अन्तर पाकर अपने रोग को जाने और प्रयासों द्वारा उसे शान्त कर वस्तु के यथार्थस्वरूप का बोध पा जावे । दूसरी स्थिति में जब किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा उसे यह बताया जावे कि वह श्वेत वस्तु को पीत वर्ण की देख रहा है। यहाँ पर इस स्वस्थ दृष्टि वाले व्यक्ति की बात को स्वीकार कर लेने पर भी उसे अपनी रुग्णावस्था या अपनी दृष्टि की दूषितता का ज्ञान हो जाता है और साथ ही वह वस्तुतत्त्व को यथार्थ रूप में जान भी लेता है।
सम्यकदर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थश्रद्धान उनमें वास्तविकता की दष्टि से अन्तर नहीं होता है । अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन करता है और वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है । दूसरा व्यक्ति वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। दोनों दशाओं में व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ ही कहा जायगा यद्यपि दोनों की उपलब्धि विधि में अन्तर है। एक ने उसे तत्त्व-साक्षात्कार या स्वतः की अनुमति में पाया, तो दूसरे ने श्रद्धा के माध्यम से ।
वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण की यथार्थता जिन माध्यमों से प्राप्त की जा सकती है. वे दो है.--या तो व्यक्ति स्वयं तत्त्व-साक्षात्कार करे अथवा उन ऋषियों, साधकों के कथनों पर श्रद्धा करे जिन्होंने तत्त्व-साक्षात्कार किया है। तत्त्वश्रद्धा तो मात्र उस समय तक के लिए एक अनिवार्य विकल्प है जब तक साधक तत्त्व-साक्षात्कार नहीं कर लेता। अन्तिम स्थिति तो तत्त्व-साक्षात्कार की ही है। इस सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी लिखते हैं-"तत्त्वश्रद्धा ही सम्यकदृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तो तत्त्व-साक्षात्कार है । तत्त्वश्रद्धा तो तत्त्व-साक्षात्कार का एक सोपान मात्र है। वह सोपान दृढ़ हो तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है।"३८ जैन आचार-दर्शन में सम्यकदर्शन का स्थान
सम्यकदर्शन जैन आचार-व्यवस्था का आधार है। नन्दीसूत्र में सम्यक्दर्शन को संघ रूपी सुमेरु पर्वत की अत्यन्त सुदढ़ और गहन पीठिका (आधारशिला) कहा गया है जिस पर ज्ञान और चारित्र रूपी उत्तम धर्म की मेखला अर्थात् पर्वतमाला स्थिर रही हुई है। जैन आचारदर्शन में सम्यक दर्शन को मुक्ति का अधिकार-पत्र कहा जा सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्यकदर्शन के बिना सम्यज्ञान नहीं होता और सम्यक्ज्ञान के अभाव में आचरण में यथार्थता या सचारित्रता नहीं आती और सचारित्रता के अभाव में कर्मावरण
३८ जैनधर्म का प्राण, पृ० २४
३६ नन्दीसूत्र ११२
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