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|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
चिन्तन के विविध बिन्दु : ४५८ :
व्यवहारनय का लक्षण
व्यवहारनय वह है, जो पर्यायों, या संयोगों को देखता है। व्यवहारनय पानी को केवल पानी के रूप में नहीं देखता । वह पानी के साथ मिले हुए मैल या गन्दगी को देखेगा। वह यह भी विचार करता है कि यह पानी कहाँ का है। खारा है या मीठा। व्यवहारनय-संयोगों और पर्यायों से युक्त पानी को देखेगा । उससे शुद्ध जल नहीं दीखेगा।
व्यवहारनय का स्वरूप
व्यवहारनय की दृष्टि से तो हम अनादिकाल से अभ्यस्त हैं । अनादिकाल से हमारी आत्मा संयोग-सम्बन्ध को लेकर संसार में यात्रा करती आ रही है। हमारी आत्मा का कषाय के साथ संयोग है, कर्म के साथ संयोग है और योगों के साथ भी संयोग है । व्यवहार दृष्टि से आप देखेंगे तो ये सब संयोग नजर आयेंगे । व्यवहारनय की दृष्टि से देखें तो आत्मा आठ कर्मों से, चार कषायों से एवं कार्मण शरीर से तथा योगों से युक्त दीखेगा। परन्तु निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा को देखेंगे तो वह आठ कर्मों, तीन योगों एवं कषायों से रहित शुद्ध रूप में नजर आएगी। निश्चयनय की निगाह कर्मों, पर्यायों, योगों, कषायों आदि के संयोगों पर नहीं पड़ती। वह शूद्ध, बुद्ध स्वभावरूप आत्मा पर ही पड़ेगी।
व्यवहारनय एवं निश्चयनय का विषय
अत: निश्चयनय का विषय शुद्ध आत्मा है, जबकि व्यवहारनय का विषय अशुद्ध आत्मा है। व्यवहारनय की आंख से संयोग ही संयोग दिखाई देंगे। व्यवहारनय की दृष्टि से अनन्तभत भी देखेंगे या अनन्त भविष्य भी देखेंगे तो संयोगयुक्त नजर आएगा। किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से एकमात्र आत्मा ही नजर आएगी।
निश्चयनय ही आत्मकल्याण के लिए उपादेय
यहाँ एक बात और समझनी है कि आत्म-कल्याण से सीधा सम्बन्ध किस नय का है ? जो व्यक्ति आत्मकल्याण करना चाहता है, या मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए किस नय का उपदेश दिया जाना चाहिए ? कौन-सा नय मोक्ष या आत्मकल्याण में साधक है, कौन-सा बाधक है ? वास्तव में देखा जाय तो निश्चयनय ही आत्मकल्याण के लिए साधक है। मानसशास्त्र का एक नियम है कि जो जिस रूप में जिस चीज को देखता है, वह वैसा ही बन जाता है, वह उसी रूप में ढल जाता है। चन्द्रमा का लगातार ध्यान करने या देखने वाले व्यक्ति का स्वभाव प्रायः सौम्य या शीतल हो जाता है। इसी प्रकार जब निश्चयनय की दृष्टि से व्यक्ति आत्मा को देखता है तो वह उसके निर्मल, शुद्ध स्वभाव को ही देखेगा और निरन्तर-अनवरत शुद्ध स्वभाव की ओर दृष्टि होने से आत्म-विशुद्धि भी बढ़ती जाती है । स्वभाव दृष्टि (निश्चयनय) से देखने पर यह कुत्ते की आत्मा है, बिल्ली की आत्मा है, गाय की आत्मा है या मनुष्य की आत्मा है। यह पापी है या धर्मात्मा है । यह निर्धन या धनाढ्य आत्मा है, आदि ये विकल्प बिलकुल ओझल हो जायेंगे। इससे यह लाभ होगा कि निश्चयदृष्टि वाला साधक पवित्र, निर्मल, शुद्ध स्वरूपमय दृष्टि का होने से इन उपयुक्त पर्यायों पर नजर नहीं डालेगा। वह प्रत्येक आत्मा को सिर्फ आत्म-द्रव्य की दृष्टि से देखेगा । इस कारण न किसी आत्मा पर उसके मन में राग आएगा और न द्वेष ही। जब रागद्वेषात्मक विकल्प छूट जायेंगे तो आत्मा में होने वाली अशद्धि या मलीनता भी नहीं होगी। कितना
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