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|| श्री जैन दिवाकर.म्मृति-ग्रन्थ ।
श्री जैन दिवाकरजी के प्रिय पद्य :४३८:
मंगल पीड़ा दूर करन में वासुपूज्य कहावे रे। शान्तिनाथ हरे बुध पीड़ा जो शीश नमावे रे।। ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन, सुमति सुपार्श्व स्वामी रे। शीतल अरु प्रभु विमल अनन्त, धर्म कुन्थु नामी रे ॥३॥ अरहनाथ नेमी वर्द्धमान गुरु पीड़ा पर हरना रे। शुक्र पोड़ा तुरत टले, सुविधि स्मरणा रे।४। मुनि सुव्रत का जप शनिश्चर, ग्रह प्रसन्न हो जावे रे। अरिष्टनेम का भजन करे, नहीं राहु सतावे रे ॥५॥ केत ग्रह का जोर चले नहीं. पार्श्व जहाँ प्रकटावे रे। मल्लिनाथ बाल ब्रह्मचारी, विघ्न हटावे रे।६। सप्त सोलह, दश अष्ट, उन्नीस और इग्यारा रे। तेतीस अठारा, सतरा, सहस्र जप सर्व का सारा रे ।७। ॐ ह्रीं नमा तीर्थेश्वर, जपता रिद्धि सिद्धि आवे रे। दुःख दरिद्र रोग शोक, और भय विरलावे रे। उन्नीसे सतत्तर जोधाणे में, चोमासे आनन्द बर्तावे रे। गुरु प्रसादे 'चौथमल', मनवंछित पावे रे।।
४. गुणी गुण को जाने
(तर्ज-लावणी खड़ी) पापी तो पुण्य का मारग क्या जाने है। खर कमल पुष्प की गन्ध न पहचाने है ।।टेर।। नकटाने नाक दुजा को दाय नहीं आवे । विधवा ने सांग सुहागिन को नहीं सुहावें ।। हो उदय चन्द्रमा चोरों को नहीं भावे । लुब्धक को लगे अनिष्ट जो याचक आवे॥ सुनके सिद्धान्त मिथ्यात्वी रोष आने हैं ।।१।। अगायक गायक की करे बुराई । निर्धन धनी से रखता है अकड़ाई ॥ दाता को देख मुंजी ने हँसी उड़ाई। पतिव्रता को देख लंपट ने आँख मिलाई ॥ गुणी के गुण को द्वषी कब माने है ।।२।। बंध्या क्या जाने कैसे पुत्र जावे है। सन्तन के भेद हो सन्त वही पावे है ।
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