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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ २४. बड़ों का कहना है कि मनुष्य को कम खाना चाहिये, गम खाना चाहिये और ऊँचनीच वचन सह लेना चाहिये तथा शान्त होकर रहना चाहिए। गृहस्थी में जहाँ ये चार बातें होती हैं, वहाँ बड़े आनन्द के साथ जीवन व्यतीत होता है । : ४२३ विचारों के प्रतिविम्ब २५. जिस मार्ग पर चलने से शत्रुता मिटती है, मित्रता बढ़ती है, शान्ति का प्रसार होता है, और क्लेश, कलह एवं वाद का नाश होता है, वह मार्ग सत्य का मार्ग है। २६. धन की मर्यादा नहीं करोगे तो परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा । तृष्णा आम है, उसमें ज्यों-ज्यों धन का ईंधन झोंकते जाओगे, वह बढ़ती ही जायेगी । २७. धर्मं सुपात्र में ही ठहरता है कुपात्र में नहीं; इसलिए धर्मयुक्त जीवन बनाने के लिए नीति मय जीवन की जरूरत होती है । २८. अपना भ्रम दूर कर दे और अपने असली रूप को पहचान ले । जब तक तू असलि - यत को नहीं पहचानेगा, सांसियों के चक्कर में पड़ा रहेगा । २६. आत्मज्ञान हो जाने पर संसार में उत्तम से उत्तम समझा जाने वाला पदार्थ भी मनुष्य के चित्त को आकर्षित नहीं कर सकता। ३०. जो पूरी तरह वीतराग हो चुका है और जिसकी आत्मा में पूर्ण समभाव जाग उठा है, वह कैसे भी वातावरण में रहे कैसे भी पदार्थों का उसे संयोग मिले उसकी आत्मा समभाव में ही स्थित रहती है । ३१. क्रोध एक प्रकार का विकार है और जहाँ चित्त में दुर्बलता होती है, सहनशीलता का अभाव होता है, और समभाव नहीं होता वहीं क्रोध उत्पन्न होता है । ३२. जो मनुष्य अवसर से लाभ नहीं उठाता और सुविधाओं का सदुपयोग नहीं करता, उसे पश्चात्ताप करना पड़ता है और फिर पश्चात्ताप करने पर भी कोई लाभ नहीं होता । ३३. जो वस्तुएँ इसी जीवन के अन्त में अलग हो जाती हैं, जिनका आत्मा के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं रह जाता है और अन्तिम जीवन में जिसका छूट जाना अनिवार्य है, वे ही वस्तुएँ प्राप्त करना क्या जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हो सकता है ? कदापि नहीं । महत्त्वपूर्ण कार्य है अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना और आत्मा को कल्याण के उस मार्ग पर ले जाना कि फिर कभी अकल्याण से भेंट ही न करनी पड़े । ३४. बहुत से लोग चमत्कार को नमस्कार करके चमत्कारों के सामने अपने आपको समर्पित कर देते हैं। वे बाह्म ऋद्धि को ही आत्मा के उत्कर्ष का चिह्न समझ लेते हैं और जो बाह्य ऋद्धि दिखला सकता है, उसे ही भगवान् या सिद्ध- पुरुष मान लेते हैं, मगर यह विचार भ्रमपूर्ण है । बाह्य चमत्कार आध्यात्मिक उत्कर्ष का चिह्न नहीं है और जो जानबूझकर अपने भक्तों को चमत्कार दिखाने की इच्छा करता है और दिखलाता है, समझना चाहिये कि उसे सच्ची महत्ता प्राप्त नहीं हुई है। ३५. परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह नियम जड़ और चेतन सभी पर समान रूप से लागू होता है । फूल जो खिलता है, कुम्हलाता भी है; सूर्य का उदय होता है, तो अस्त भी होता है; जो चढ़ता है, वह गिरता है। ३६. संस्कृत भाषा में 'गुरु' शब्द का अर्थ करते हुए कहा गया है— 'गु' का अर्थ अन्धकार है और 'रु' का अर्थ नाश करना है। दोनों का सम्मिलित अर्थ यह निकला कि जो अपने शिष्यों के अज्ञान का नाश करता है, वही 'गुरु' कहलाता है। ३७. अपने जीवन के जहाज को जिस कर्णधार के भरोसे छोड़ रहे हो, उसकी पहले जाँच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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