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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
करो; यही राष्ट्रधर्म है। राष्ट्रधर्म का मलीभाँति पालन करने वाले आत्मधर्म के अधिकारी बनते हैं । जो व्यक्ति राष्ट्रधर्म से पतित होता है, वह आत्मिक धर्म का आचरण नहीं कर सकता ।
११. यह अछूत कहलाने वाले लोग तुम्हारे भाई ही हैं इनके प्रति घृणाद्वेष मत करो। १२. धर्म न किसी देश में रहता है, न किसी खास तरह के लौकिक बाह्य क्रियाकाण्ड में ही रहता है; उसका सीधा सम्बन्ध आत्मा से है। जो कषायों का जितना त्याग करता है, वह उतना ही अधिक धर्मनिष्ठ है, फिर भले ही वह किसी भी वेश में क्यों न रहता हो ?
प्रवचन कला की एक झलक : ४२२ :
१३. अगर आप सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको आत्म-शुद्धि करनी पड़ेगी । आत्मशुद्धि के लिए आत्मावलोकन का अर्थ यह नहीं कि आप अपनी मौजूदा और गैरमौजूदा विशेषताओं का ढिढोरा पीटें अपना बड़प्पन जाहिर करने का प्रयत्न करें; नहीं, यह आत्मावलोकन नहीं, आत्मवंचना है।
१४. बोतल में मदिरा भरी है और ऊपर से डॉट लगा है। उसे लेकर कोई हजार बार गंगाजी में स्नान कराये तो क्या मदिरा पवित्र हो जाएगी ? नहीं । इसी प्रकार जिसका अंतरंग पाप और कषायों से भरा हुआ है, वह ऊपर से कितना ही साफ-सुथरा रहे, वास्तव में रहेगा वह अपावन । १५. आत्म-कल्याण का भव्य भवन आज खड़ा नहीं कर सकते तो कोई चिन्ता नहीं, नींव तो बाज डाल ही सकते हो। आज नींव लगा लोगे तो किसी दिन शनैः-शनैः महल भी खड़ा हो सकेगा। जो नींव ही नहीं लगाना चाहता, वह महल कदापि खड़ा नहीं कर सकता ।
१६. ज्ञान का सार है विवेक की प्राप्ति और विवेक की सार्थकता इस बात में है कि प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव जागृत किया जाए।
१७. धाय वालक को दूध पिलाती है, रमाती है फिर भी भीतर-ही-मीतर समझती है कि यह बालक मेरा नहीं पराया है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव धन-जन आदि की रक्षा करता है। और उसका उपयोग भी करता है तथापि अन्तस् में जानता है कि यह सब पर-पदार्थ है । यह आत्ममूल व नहीं है ऐसा समझकर वह उनमें गृद्ध नहीं बनता, अनासक्त रहता है ।
१८. किसी भी किसान से पूछो कि वह अपने खेत को बार-बार जोतकर कोमल क्यों बनाता है ? तो वह यही उत्तर देगा कि कठोर भूमि में अंकुर नहीं उग सकते। यही बात मनुष्य के हृदय की है। मनुष्य का हृदय जब कोमल होगा, तब उसकी अभिमानरूपी कठोरता हट जाएगी और उसमें धर्मरूपी अंकुर उग सकेगा ।
१६. जूतों को बगल में दबा लेंगे, रखकर सोयेंगे । मगर चमार से घृणा करेंगे ? २०. ज्ञानी का ज्ञान उसे दुःखों की जबकि अज्ञानी का अज्ञान उसके लिए विष बुझे वाण का काम करता है।
२१. स्वाध्याय का अर्थ कष्ठस्थ किये हुए गद्य-पद्य को तोते की तरह बोलते जाना ही नहीं समझना चाहिये । जो पाठ बोला जा रहा है, उसका आशय समझते जाना और उसकी गहराई में मन लगा देना आवश्यक है ।
तीसरी श्रेणी के मुसाफिरखाने में जूतों को सिरहाने यह क्या है ?
अनुभूति से बचाने के लिए कवच का काम करता है,
मिट्टी की तरह संसार से चिपटा है, अतः संसार में फँस जाएगा । रेत के समान बनेगा तो संसार से निकल जाएगा।
२२. भाई, तू चिकनी
२३. जैसे सूर्य और चन्द्र का आकाश और दिशा का बँटवारा नहीं हो सकता, उसी प्रकार धर्म का भी बँटवारा सम्भव नहीं है । धर्म उस कल्पवृक्ष के समान है, जो समानरूप से सब के मनोरथों की पूर्ति करता है और किसी प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय नहीं देता ।
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