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। श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ हृदय-स्पर्शी और ओजस्वी प्रवचन कला : एक झलक श्री चौथमलजी महाराज की प्रवचन-कला
डा० नरेन्द्र भानावत, एम० ए०, पी एच० डी०
(हिन्दी प्राध्यापक, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर-४) जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज का व्यक्तित्व बहु आयामी और बहुमुखी है। वे आत्म-साधना के पथ पर बढ़ने वाले आध्यात्मिक सन्त होने के साथ-साथ जीवन और समाज में व्याप्त अशुद्धि व विकृति को दूर कर लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाले क्रान्तिदाता युगपुरुष भी है। उनके व्यक्तित्व में एक ओर कबीर की स्पष्टवादिता है तो दूसरी ओर भक्त कवि सूरदास की माधुरी । एक ओर महाकवि तुलसीदास की समन्वयवादी दृष्टि है तो दूसरी ओर सूफी कवि जायसी की प्रेमानुभूति । वे एक साथ कोमल होकर भी कठोर हैं और सरल होकर भी प्राज्ञ हैं । अन्तरंग और बहिरंग में व्याप्त अन्धकार को नष्ट करने वाला यह दिवाकर सचमुच जीवंत कलाकार है। गद्य और पद्य में अभिव्यक्त अपनी जादू-भरी वाणी द्वारा इस साहित्य साधक कलाकार ने न जाने कितने अनगढ़ पत्थरों में प्राण प्रतिष्ठा की है, न जाने कितने दिशाहारों को लक्ष्य संधान किया है और न जाने कितने भयग्रस्तों को निर्भय और निर्धान्त बनाया है।
धार्मिकता और दार्शनिकता की भित्ति पर निर्मित इस महान कलाकार का साहित्य बोझिल और शुष्क नहीं है । वह अनुभूति की तरलता से सिक्त और मानस की गहराई से प्रशान्त है । उसमें कवि हृदय की सरसता और प्रवचनकार की प्रभविष्णता युगपद देखी जा सकती है। काव्यरचना में आपको जितनी सफलता मिली है उतनी ही प्रवचन-कला में भी। निबन्ध के समानान्तर ही प्रवाहमान विधा है-प्रवचन । निबन्ध और प्रवचन का मूल अन्तर इसकी रचना प्रक्रिया में है । निबन्ध सामान्यतः लेखक स्वयं लिखता है या बोलकर दूसरे से लिखवाता है, पर प्रवचन एक प्रकार का आध्यात्मिक भाषण है, जो श्रोतामंडली में दिया जाता है । यह सामान्य व्यक्ति द्वारा दिया गया सामान्य भाषण नहीं है। किसी ज्ञानी, साधक एवं अन्तमुखी, चिन्तनशील व्यक्ति की वाणी ही प्रवचन कहलाती है । इसमें एक अद्भुत बल, विशिष्ट प्रेरणा और आन्तरिक साधना का चमत्कार छिपा रहता है । श्रोता के हृदय को सीधा स्पर्श कर उसे आन्दोलित बिलोड़ित करने की क्षमता उसमें निहित होती है। सन्त आध्यात्मिक-पथ पर बढ़ने वाली जागरूक आत्माएँ हैं । उनकी अनुभूत वाणी प्रवचन की सच्ची अधिकारिणी है। कहना न होगा कि जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज इस प्रवचन साहित्य के सिरमौर कलाकार हैं।
जैन धर्म लोकधर्म है । वह लोकभूमि पर प्रतिष्ठित है । आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण की भावना जन-जन में भरने के उद्देश्य से प्रतिदिन प्रवचन करना जैन संत का आवश्यक कर्तव्य है । चातुर्मास काल में तो प्रतिदिन नियमित रूप से व्याख्यान-प्रवचन होते ही हैं, उसके बाद भी शेषकाल में ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए भी व्याख्यान देने का क्रम जारी रहता है। भारत में
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