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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ | व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३८८: साहकार येन-केन-प्रकारेण न्याय-अन्याय का विवेक खोकर धनोपार्जन में व्यस्त थे, निर्धन एवं पिछड़ी जाति के लोग भी मद्य-मांस के सेवन द्वारा उत्तरोत्तर अधोमुख हो रहे थे। देश एवं समाज का बड़ा भाग विपिन में खोये राहगोर की भांति बेभान था। ऐसे विषम समय में पूज्य श्री दिवाकर जी महाराज साहब ने ज्ञान एवं विवेक की ज्योति जगा कर पथभ्रष्ट व्यक्तियों का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी वाणी में आश्चर्यजनक शक्ति थी। श्रोतागण मन्त्रमुग्ध होकर सुना ही करते। अपने विचारों को मूर्त रूप देने में वे अटल थे। वे दृढ़ संकल्प के धनी थे। पतित से पतित वर्ग के व्यक्तियों का उद्धार पूज्य श्री दिवाकरजी महाराज साहब द्वारा हुआ। आपके व्याख्यान एवं प्रचार शैली में ऐसी विशेषता थी कि राजा-महाराजा से लेकर पतित एवं अछूत कहलाने वाले तक में आपके पति श्रद्धा एवम् भक्ति उमड़ आती। उनके जीवन की कुछ वास्तविक घटनाओं द्वारा मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि संस्कार परिवर्तन एवं सुसंस्कार निर्माण में जैन दिवाकरजी महाराज का योगदान अद्वितीय था । वेश्याओं पर प्रभाव-वेश्याएं अपने कलंकित पेशे के कारण समाज में घृणा की पात्र हैं तथा इहलोक एवं परलोक दोनों ही बिगाड़ती हैं। जोधपुर में पूज्य गुरुदेव के व्याख्यानों का ऐसा प्रभाव हुआ कि वेश्याएं भी आपके व्याख्यान में आने लगी तथा कई वेश्याओं ने वेश्यावृत्ति का त्याग कर दिया एवं कई वेश्याओं ने मर्यादा कर ली। वेश्याएं स्वयं अपने धन्धे से घृणा करने लगीं। दिवाकरजी महाराज साहब ने वेश्याओं को सन्मार्ग पर लगा दिया। वेश्यावृति को बन्द करने हेतु एवं सुधार हेतु एक सभा का भी गठन किया गया। खटीकों द्वारा हिंसा त्याग-खटीक लोग पशुवध का धन्धा कर घोर हिंसा करते हैं। दिवाकरजी महाराज साहब ने इस क्षेत्र में गजब का कार्य किया। गांवों में रहने वाले खटीकों को, शहरों में रहने वाले खटीकों को तथा मार्ग में भी बकरों को ले जाते हुए खटीकों को मार्ग में ही समझाकर हिंसा का सदैव के लिए त्याग करवा देते। - - .. .. 1 केसर (धार) में आपके उपदेशामत से प्रभावित होकर, लगभग ६० गाँवों के चमार लोगों ने मद्यमांस निषेध का इकरारनामा लिखा। इससे इस जाति में मद्य-मांस रुक गया। इस पर शराब के विक्रेताओं को हानि हुई और उन्होंने इन लोगों की प्रतिज्ञा तुड़ाना चाहा । लेकिन चमार लोगों ने यह निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण चले जावें परन्तु त्याग भंग नहीं होगा। काफी संघर्ष चला फिर भी चमार टस से मस नहीं हुए। अन्त में कलारों ने अपनी पराजय समझी एवं उन्होंने भी मद्य के सेवन व विक्रय आदि का त्याग कर लिया। इसी प्रकार भील लोग भी प्रभावित हुए । संवत् १९६५ में उदयपुर के निकट 'नाई' नामक गाँव में आस-पास के भील क्षेत्र के मुखिया लोगों ने व्याख्यान सुने एवं बहुत प्रभावित हुए। चार पाँच हजार भीलों के प्रतिनिधियों ने कई प्रतिज्ञाएं लीं। संवत् १९७१ में गंगापुर में आपकी अमृत-वाणी से प्रभावित होकर, वहाँ के जिनगर (मोची) लोगों ने मांस-भक्षण एवं मदिरापान का त्याग किया। इतना ही नहीं वे जैन बन गए एवं जैन धर्म की सामायिक, दया, पौषध, उपवास आदि क्रियाओं का श्रद्धापूर्वक पालन करने लगे। इसी प्रकार मेवाड़, मारवाड़, दक्षिण, खानदेश आदि प्रान्तों के कई जिनगरों ने मांस एवं मद्य का त्याग किया एवं जिसके फलस्वरूप उनकी आर्थिक स्थिति में बहुत सुधार हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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