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॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहरंगी किरणे : ३८६ :
मदिरापान एवं वेश्यागमन का पथिक है और जब तक शासक स्वयं यह कार्य नहीं छोड़ेगा तो प्रजा भी नहीं छोड़ेगी। चूंकि उस समय राजतन्त्र था । प्रत्येक नगर ग्राम में जागीरदारों, जमींदारों के राज्य थे इसलिए उन्होंने अधिक-से-अधिक जागीरदारों को समझाया, जमींदारों को समझाया उनको सारगमित उपदेश दिये; बुराइयों से हानि बतलाई और उनसे इन बुराइयों से दूर रहने की सलाह दी। शासक वर्ग उस समय साधु को सिर्फ याचक रूप में ही जानता था। उन्होंने महाराजश्री को धनदौलत देनी चाही, लेकिन गुरुदेव ठहरे एक जैन साधु जो धन-दौलत तो क्या एक समय का भोजन भी रात्रि को संग्रह करके नहीं रख सकता। वह धन का क्या संग्रह करेगा ? उन्होंने धन के बदले शासकों से निवेदन किया-आपके गाँवों, आपके राज्य में मदिरापान, बलि-प्रथा आदि बन्द करा दी जावें । उनके इस त्याग को देखकर शासक वर्ग ने अपने राज्यों में इस प्रकार के आदेश निकाल दिये एवं उन्होंने अपनी बुराइयों को भी दूर किया जिससे 'यथा राजा तथा प्रजा' की कहावत चरितार्थ हुई।
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जैन दिवाकर
(तर्ज-दिल लूटने वाले जादूगर) गुरु जैन दिवाकर पर उपकारी, जग को जगाने आये थे राह यहाँ जो भूल गये प्राणी, उन्हें राह दिखाने आये थे ।टेर। वह दिव्य. पुज प्रगटाया था, नीमच की पावन भूमि में । मात रु पिता का मन मानस, खिल उठा था निर्मल उर्मी में । यौवन की उठती आयु में, रंगभूमि में रंग लाये थे।१। पर वह प्रकाश लघु सीमा में, सोचो कब रहने वाला था। माया की अँधेरी अटवी में भी, जिनके संग उजियारा था व्यूह भेद दिया और निकल पड़े, बे रंग में एक रंग लाये थे।२। बन गये पथिक संयम पथ के, जुड़ गये त्याग की कडियों में कर लिया ज्ञान गुण का सग्रह जीवन की सुनहरी घड़ियों में गुरु मिले थे हीरालाल जिन्हों से, ज्ञान खजाना पाये थे।३। वाणी थी तीर्थसम जिनकी, यात्री थे नर-पति नर-नारी दर्शन कर कलिमल धोते थे, दुर्जन हिंसक अत्याचारी बन गये सुखी वे जीवन में जो पापों को छिटकाये थे ।४। बन्धुत्व भावना और दया को अपनाने की कहते थे जाते थे जहाँ गुरु सब ही को "मूल" मंत्र यह देते थे विसरायेंगे न कभी तुमको, जो चरणों में सुख पाये थे ।५।।
-मधुर वक्ता श्री मूलमुनि
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