________________
: ३७५ : जैन इतिहास के एक महान् तेजस्वी सन्त
श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
जैन इतिहास के एक महान् प्रभावक तेजस्वी सन्त
* साध्वी श्री कुसुमवती 'सिद्धान्ताचार्य' मालवा के नीमच नगर के प्रतिष्ठित चौरड़िया परिवार में कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी को एक महान् आत्मा श्री चौथमलजी का जन्म हुआ । यही व्यक्तित्व आगे चलकर मुनि श्री चौथमल जी महाराज के नाम से जैन इतिहास रूपी गगन में एक प्रखर तेजस्वी - प्रतापी सूर्य बन कर चमका जिसके प्रकाश से समाज में व्याप्त रूढ़ियों, मिथ्या आडम्बरों, भ्रान्तियों, धर्मान्धता, जातीय मद, सम्प्रदायवाद आदि अज्ञान व कषाय से उत्पन्न दुष्प्रवृत्तियों का कुहरा खत्म हुआ। जैन तत्त्वदर्शन व वीतराग विज्ञान के इस महान् उपदेष्टा ने महल से लेकर कुटिया तक, जन-जन का मानस अध्यात्म से प्रकाशित किया तथा समता, अहिंसा, समन्वय, उदारता व सदाचार का मार्ग प्रशस्त किया ।
वे सच्चे अर्थों में जैन जगत के देदीप्यमान सूर्य थे क्योंकि उनके ज्ञानोपदेशरूपी प्रकाश ने बिना किसी भेद-भाव के, जन-जन को सन्मार्ग दिखलाया । उनकी आध्यात्मिक साधना की रोशनी से क्या जैन, क्या जैनेतर, क्या राजा, क्या रंक, क्या शिक्षित, क्या गँवार, सभी का अन्तर्तम दूर हुआ, हृदय की कालिमा नष्ट हुई और जीवन सदाचार व सद्ज्ञान से अनुप्राणित हुआ ।
मुनि श्री चौथमलजी महाराज का जीवन एक ओर जहाँ प्रखर तेजस्विता का उदाहरण प्रस्तुत करता है, वहाँ दूसरी ओर अनेक भव्यों की आत्माओं को जागृत — उद्बोधित करने वाला तथा सद्ज्ञान व सदाचार का प्रेरक भी रहा है । उनके सम्पर्क में आये अनेक लोग सद्ज्ञान में मार्ग पर आगे बढ़ सके, जो अन्यथा अज्ञान अन्धकार में राह भटक जाते, ठोकरें खाकर गिरते रहते और असीम दुःख के गर्त से कभी छुटकारा न पाते। इनकी प्रेरणा से हजारों मानवों ने माँस खाना बेचना, पशु हिंसा, शिकार, मद्यपान आदि दुर्व्यसनों का सहर्ष त्याग किया ।
ठीक भी है, 'दिवाकर' से बढ़ कर दुनिया में प्रकाश का बड़ा स्रोत नहीं, और न ही है, उससे बढ़ कर प्राकृतिक जीवन में कोई उपकारक, प्रेरणादायक व स्फूर्तिदायक । सूर्य के प्रकाश में अन्धकार को अपना अस्तित्व बनाये रखना असम्भव हो जाता है। सूर्य के साथ मुनिश्री की स्वाभाविक एकता इतनी आश्चर्यजनक है कि इनके जीवन की प्रमुख घटनाएँ (जन्म, दीक्षा, अन्तिम प्रवचन व दिवंगति) रविवार को घटित हुई। यह सुसंगत ही था कि राष्ट्र ने उन्हें 'जैन दिवाकर' की पदवी से अलंकृत किया ।
मुनिश्री का व्यक्तित्व इतना महान् है कि उस पर बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं । किन्तु मैं तो उनके सन्त स्वभाव के प्रति विशेष आकर्षित हूँ । उसी स्वरूप के कुछ पक्षों पर प्रकाश डालना यहाँ उपयुक्त समझती हूँ ।
afa और नीतिज्ञ श्री भर्तृहरि ने सज्जनों का लक्षण इस प्रकार वर्णित किया है
१
तृष्णां छिन्धि भज क्षमां जहि मदं पापे रतिं मा कृथाः, सत्यं ब्रूह्यनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वज्जनम् । मान्यान्मानय विद्विषोत्यनुनय प्रच्छादय स्वान्गुणान, कोति पालय दुःखिते कुरु दयामेतत्सतां लक्षणम् ॥'
नीतिशतक - ७८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org